रविवार, 8 दिसंबर 2013

संकट में मानवाधिकार

व्यक्ति को जीने, स्वतंत्रता का उपभोग करने तथा खुद को निरापद बनाने का अधिकार है। किसी व्यक्ति को दास बनाकर नहीं रखा जा सकता। साथ ही, दासता और दासों की खरीद-फरोख्त पर कानूनी रूप से मनाही भी है। किसी व्यक्ति को शारीरिक यंतण्रा नहीं दी जा सकती और न क्रूरतापूर्ण तथा अमानवीय बर्ताव ही किया जाएगा। उसका न तो अपमान किया जाएगा और न उसे अपमानजनक दंड ही दिया जाए। कानून की दृष्टि में सभी मनुष्य समान हैं और बिना किसी भेदभाव के उन्हें कानून का समान संरक्षण पाने का अधिकार है। इस घोषणापत्र का उल्लंघन होने और भेदभाव किए जाने पर प्रत्येक व्यक्ति को कानूनी संरक्षण प्रदान किया जाए। किसी व्यक्ति को मनमाने ढंग से गिरफ्तार और नजरबंद न किया जाए, न ही उसको निष्कासित किया जाए। खुली अदालत में मुकदमा चलाकर सजा मिले बिना, जिसमें उसे अपने बचाव की सभी आवश्यक सुविधाएं दी गई हों, प्रत्येक व्यक्ति निर्दोषसमझा जाए। किसी के एकांत जीवन, परिवार, घर या पत्र व्यवहार के मामले में अनुचित हस्तक्षेप न किया जाए और न उसके सम्मान और प्रतिष्ठा पर किसी प्रकार का आघात किया जाए। साथ ही, उसे अनु चित दखल के विरुद्ध कानूनी संरक्षण का हम रहेगा। हर व्यक्ति को अपने राज्य की सीमा के अं दर स्वेच्छापूर्वक आने-जाने और मनचाहे स्थान पर बसने का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने देश को छोड़कर दूसरे देश जाने और वहां से लौटने का अधिकार है। प्रत्येक स्त्री और पुरुष को राष्ट्र, राष्ट्रीयता और धर्म के प्रतिबंध के बिना विवाह करने और परिवार बनाने का अधिकार है। प्रत्येक पुरुष और स्त्री को विवाह करने, वैवाहिक जीवन में और संबंध-विच्छेद के मामलों में समान अधिकार हैं। परिवार को समान और राज्य संरक्षण प्राप्त होगा। हरेक को विचार, अंत:करण, धर्मोपासना को स्वतंत्रता का अधिकार है। इसमें धर्म परिवर्तन, धर्मोपदेश, व्यवहार, पूजा और अनुष्ठान की स्वतंत्रता सम्मिलित है। प्रत्येक व्यक्ति को शांतिपूर्ण सभा करने और संगठन बनाने का अधिकार है। शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार भी मानव के मूलभूत अधिकारों में है। बच्चों को किस प्रकार की शिक्षा दी जाए, इसका अधिकार उनके माता-पिता को है। वैज्ञानिक, साहित्यिक अथवा कलाकृति से मिलने वाली ख्याति तथा उसके भौतिक लाभ की रक्षा का भी उसे अधिकार है (27)। कुल मिलाकर, 30 धाराएं मानवाधिकार प्रपत्र में शामिल की गई हैं। भारत में मानवाधिकार रक्षा के प्रयास भारत शुरू से ही मानव और मानवता का सम्मान करनेवाला देश रहा है। मानवाधिकारों के लिए यहां 1829 में ही राजा राममोहन राय द्वारा चलाए गए हिन्दू सुधार आंदोलन के बाद भारत में सती प्रथा को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया। इसी साल नाबालिगों को शादी से बचाने के लिए बाल विवाह निरोधक कानून पारित हुआ। 1955 में भारतीय परिवार कानून में सुधार हुआ और हिन्दू महिलाओं को ज्यादा अधिकार मिले, जबकि 1973 में केशवानंद भारती केस में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संविधान संशोधन द्वारा संविधान द्वारा प्रदत्त कई मूल अधिकार को हटाया नहीं जा सकता। यही नहीं, 1989 अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (अत्याचारों से सुरक्षा) एक्ट 1989 पारित हुआ और 1992 में संविधान में संशोधन के जरिए पंचायत राज की स्थापना में महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण लागू हुआ। 1993 में ‘प्रोटेक्शन ऑफ ह्यूमन राइट्स एक्ट’ के तहत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना हुई तो 2001 में खाद्य अधिकारों को लागू करने के लिए आदेश पारित किया गया। 2005 में सूचना का अधिकार कानून आया तो 2005 में रोजगार की समस्या हल करने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट पारित किया गया और भारतीय पुलिस के कमजोर मानवाधिकारों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार के निर्देश दिए। पर मानवाधिकार प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने वाला हमारा देश आज मानवाधिकारों के उल्लंघनों का एक गढ़ भी है। यहां करोड़ों लोग बहुत गरीबी में रहते हैं जो साफ-सफाई, बिजली, स्वास्थ्य व शिक्षा-संबंधी सुविधाओं के साथ रोटी, कपड़ा, मकान और पेय जल जैसी जीवन की आवश्यक वस्तुओं से भी वंचित हैं। संकट में आमजन और महिलाएं आम आदमी रोज पुलिस प्रशासन तथा अपराधियों के अत्याचारों को सहने को विवश है। आतंकवाद को रोकने के नाम पर मानवाधिकारों का अतिक्रमण और हनन हो रहा है तो आदिवासी इलाकों में गरीबों और बेघरों को भी बर्बर व्यवहार सहना पड़ता है। महिलाएं घरेलू हिंसा, यौन शोषण, बलात्कार जैसे बर्बर शोषण और दमन की शिकार बन रही हैं। नामी और शक्तिशाली लोग मनमानी करने से बाज नहीं आते। बच्चे भी शिकार आज बड़ी संख्या में बच्चों का शोषण किया जा रहा है। वे मजदूरी कर रहे हैं, परिवार से दूर अकेले इस शोषण का शिकार हो रहे हैं। उनसे जबर्दस्ती काम करवाया जा रहा है। उनके साथ बुरा व्यवहार तो बहुत आम बात है। दुनिया के कई देशों में आज भी बच्चों को बचपन नसीब नहीं है। हालांकि 1992 में भारत में बाल मजदूरी हटाने का लक्ष्य तय किया गया और कहा गया कि यह काम रोक दिया जाएगा पर दुख की बात यह है कि आज 21 साल बाद भी हम बाल मजदूरी खत्म नहीं कर पाए हैं। आज करीब पांच करोड़ बच्चे बालश्रमिक के रूप में कार्य करने को विवश हैं। इनमें से 50 फीसद लड़कियां हैं। क्यों नहीं हटता बालश्रम हालांकि चाइल्ड लेबर एक्ट में 14 साल से कम उम्र के बच्चे को काम पर रखना गैरकानूनी है, जबकि होटलों, ढाबों, कारखानों में खुले तौर पर छोटे-छोटे बच्चों को मजदूरी करते देखा जा सकता है। दूसरे मां-बाप अभिभावकों की अज्ञानता और गरीबी भी इसका बड़ा कारण है क्योंकि बच्चों की कमाई से इनका परिवार आसानी से चल जाता है। अशिक्षा तथा अज्ञानता का लाभ चालाक किस्म के लोग उठा रहे हैं। आशा की एक किरण इतना होने पर भी मानवाधिकार संरक्षण आयोग, महिला आयोग, बाल सुरक्षा व संरक्षण, आदिवासी तथा अनुसूचित जाति व जनजाति के हितैषी कुछ संगठन व्यक्ति बुनियादी मानवाधिकारों की रक्षा के संघर्ष में जुटे हैं। इस बढ़ती धारा के दबाव में सरकार ने बड़े अभियान भी चलाये हैं। केवल कानूनी रूप से ही सही, पर ‘शिक्षा, भोजन, रोजगार के अधिकार उन्हें मिले भी हैं पर अब भी उन्हें अमलीजामा पहनाने के लिए काफी कुछ किया जाना शेष है।

नया इतिहास रचतीं उषा

मिसाल
काम के प्रति बहुत ही समर्पित भाव रखने वाली उषा के समय का एक बड़ा हिस्सा इस बात में बीतता है कि कैसे किसी काम को नए तरीके से किया जाए

महिलाओं को कम ब्याज दर पर कर्ज देकर उन्हें स्वावलंबी बनाने के उद्देश्य से देश भर में महिला बैंक की शाखाएं खोलने की तैयारी चल रही है। उषा अनंत सुब्रमण्यम इस भारतीय महिला बैंक की पहली चेयरपर्स न और मैने जिंग डार्योक्टर चुनी गई हैं। उषा वुमेन पावर के लिए नया इतिहास रचने वाली हैं। उनकी जुझारू प्रवृत्ति और क्षमता को देखकर ही उन्हें यह पद दिया गया है। 31 साल के अपने करियर में उन्होंने कई बुलंदियां छुई हैं। कई चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना किया है। उषा का गृह नगर चेन्नई है। उन्होंने सांख्यिकी और भारतीय संस्कृति में मास्टर्स डिग्री ली। सांख्यिकी ने उन्हें गणनाओं और आंकड़ों की दुनिया का सिरमौर बनाया और भारतीय संस्कृति ने कर्म के महत्व को समझाया। वे कहती हैं कि भारतीय संस्कृति पढ़ने का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि इसने जोखिम के प्रबंधन में मुझे माहिर बनाया। इससे उषा ने यह सीखा कि विकट परिस्थितियों में कैसे सामान्य रहा जाए। हालांकि परंपरा को वे अपनाने में आगे हैं लेकिन नई चीजों को लेकर भी उनमें जुनून है। काम के प्रति बहुत ही समर्पित भाव रखने वाली उषा के समय का एक बड़ा हिस्सा इस बात में बीतता है कि कैसे किसी काम को नए तरीके से किया जाए। उषा 55 साल की हैं, लेकिन हैं जवानों-सी चुस्त-दुरुस्त। पिता अध्यापक रहे हैं और मां गृहिणी। पिता ने शुरू से उनकी शिक्षा को जीवन की पहली प्राथमिकता दी। उषा ने बताया कि पिता ने उनसे एक बार कहा था कि मैं तुम्हें जो सबसे अच्छी गिफ्ट दे सकता हूं, वह है अच्छी शिक्षा। वह खुश किस्मत थीं कि उन्हें यह गिफ्ट मिला और इसके मान के तौर पर उन्होंने हमेशा पिता का सिर गर्व से ऊंचा रखा। उन्होंने सांख्यिकी की उच्च शिक्षा मद्रास यूनिवर्सिटी से हासिल की और भारतीय संस्कृति की पढ़ाई बंबई यूनिवर्सिटी से। पहली नौकरी एलआईसी में असिस्टेंट मैनेजर के तौर पर की। बैंकिंग के क्षेत्र में 1982 में आई और तब बैंक ऑफ बड़ौदा में बतौर प्लानिंग असिस्टेंट ऑफीसर ज्वाइन किया। 29 साल बैंक ऑफ बड़ौदा में ही बिताये और इसके बाद 2011 में एग्जीक्यूटिव डार्योक्टर बनकर पंजाब नेशनल बैंक आ गई। बैंक ऑफ बड़ौदा में उन्होंने कई शानदार काम किये। वहां उन्होंने लाइफ इंश्योरेंस ज्वाइंट वेंचर की शुरुआत की। साथ ही, ट्रां सफॉम्रेशन प्रोजेक्ट्स चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। केंद्र सरकार ने जब महिला बैंक की स्थापना और उससे जुड़े मुद्दों पर ब्लूप्रिंट तैयार करने के लिए एक समिति बनाई, तो सदस्य के तौर पर उषा को भी शामिल किया गया। समिति की रिपोर्ट सौंपे जाने के बाद वित्त मंत्रालय ने बैंक के लिए एक कोर मैनेजमेंट टीम बनाई जिसकी कमान उषा को सौंपी गई। उन्हों ने जिस तरह से अब तक अपना दायित्व निभाया, उससे यही उम्मीद की जा रही है कि राष्ट्रीय महिला बैंक को वे सफलता की बुलंदियों पर पहुंचा देंगी। इस बैंक का उद्देश्य महिलाओं की वित्तीय जागरूकता और उन्हें बैंकिंग फ्रेंडली बनाना है। वे कहती हैं कि मैंने अपने अनुभवों से पाया है कि महिलाओं में कारोबार को लेकर काफी अच्छी समझ होती है। समस्या यह है कि उन्हें मौके नहीं मिलते। जिन्हें मौके मिलते भी हैं उनकी राह में पैसे की किल्लत का एक बड़ा बैरियर होता है। वह उम्मीद जताती हैं कि महिला बैंक उन्हें पैसे भी देगा और अवसर भी। उन्होंने इस बैंक की शाखा अभी केवल सात शहरों में खोली है लेकिन इस वित्त वर्ष के खत्म होने तक उन्हें उम्मीद है कि देश के 25 जगहों पर शाखाएं खोली जाएंगी। हालांकि उन्हें एक-दो बरसों के भीतर देश के हर जिले में बैंक खोलने हैं। रिजर्व बैंक के निर्देशानुसार, 25 प्रतिशत बैंक ग्रामीण इलाकों में खोले जाने हैं। जाहिर है कि उनकी राह आसान नहीं, लेकिन उन्हें चुनौतियों से प्यार है।
प्र. पूजा कुमारी

पितृसत्ता की प्रतीक महिलाओं की ‘हाई हील’ जूतियां

आधी बात पूरी बात डॉ. कुमुदिनी पति

हाई हील की वजह से पंजे का पैर की हड्डियों के साथ बनने वाला कोण 90 डिग्री नहीं रह जाता और पैर की हरकत 60 डिग्री नहीं होती। यानी चाल ही बदल जाती है, जिसके कारण बाद में बिना एड़ी वाले जूतों को पहनना भी संभव नहीं रह जाता

अगर आप समझती हैं कि आपकी जूती आपको लंबाई देती है और मर्दो के बराबर खड़ा कर देती है तो यह गलतफहमी है। ऊंची एड़ी के जूते या सैंडल्स महिलाओं के लिए ‘फैशन स्टेटमेंट’ जरूर हैं पर आधुनिक शोध के अनुसार, यह स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक हैं। अमेरिका और ब्रिटेन के अस्थि विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे जूतों को लगातार पहनने से रीढ़, एड़ियों, पैर और उंगलियों की हड्डियों पर पूरे शरीर का भार पड़ता है, जिससे उनके आकार स्थायी रूप से प्रभावित होते हैं यानी उनका आकार हमेशा के लिए बदल जाता है। रीढ़ के मनकों के बीच की जगह कम हो जाती है, मनके बाहर को खिसक जाते हैं और उनके बीच से गुजरने वाले तंत्रिकाओं पर दबाव पड़ता है। कभी-कभी घुटनों में ऑस्टियोपोरोसिस जल्द पैदा हो जाती है या फिर पुरानी ऑस्टियोपोरोसिस गंभीर रूप धारण कर लेती है। बताया जाता है कि ऑस्टियोपोरोसिस 26 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। महिलाओं का अंग-विन्यास भी गड़बड़ा जाता है और उन्हें चलने में दिक्कत होती है तथा पैरों और पीठ में भयानक दर्द होने लगता है। फैशन उद्योग के सलाहकार बताते हैं कि दर्द कम करने के लिए मरहम लगाए जा सकते हैं, सुई लगाई जा सकती है, पैरों की सिकाई की जा सकती है, कमर सीधी करने के लिए व्यायाम किये जा सकते हैं, रात को सोने से पूर्व पैरों की मालिश की जा सकती है और पैरों को बीच-बीच में आराम दिया जा सकता है। कैटवॉक करने से पहले हील वाली जूतियों को पहनकर अभ्यास किया जा सकता है, यह मॉडलों के लिए हिदायत रहती है। पर कोई यह नहीं बताता कि ऊंची एड़ी वाली जूतियां पहनकर रैम्प पर मॉडल गिर चुकी हैं और उनके पैर में फ्रैक्चर भी हुए हैं। हो सकती है अपू रणीय क्षति यह भी छिपाया जाता है कि ऐसे जूतों से शरीर को जो हानि पहुंचती है वह अपूरणीय होती है। यहां तक कि एक्स-रे और अल्ट्रासाउंड के बाद भी पता चलता है कि मांसपेशियों पर बल पड़ने के कारण उनका आकार बदल जाता है, पिंडलियां सूज जाती हैं, पैर मुड़ जाते हैं और पैर का पिंड काम करना बंद कर देता है। इसकी वजह से पंजे का पैर की हड्डियों के साथ बनने वाला कोण 90 डिग्री नहीं रह जाता और पैर की हरकत 60 डिग्री नहीं होती। यानी चाल ही बदल जाती है और इसके कारण बाद में बिना एड़ी वाले जूतों को पहनना भी संभव नहीं रह जाता। इसलिए हम देखते हैं कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को दोगुना अधिक घुटनों के जोड़ की ‘रिप्लेसमेंट सर्जरी’ करानी पड़ती है। जूतों की प्राचीन परंपरा प्राचीन काल में लोग अधिकतर नंगे पांव चलते थे और उच्च वर्ग के लोग ही पैरों को बचाने के लिए चमड़ा, कपड़ा, काष्ठ या पत्तों का प्रयोग करते थे। महिलाओं के बारे में धारणा थी कि उनके पैरों का बंधा होना इस बात का संकेत था कि उनकी यौनिकता जाग चुकी है। आखिर इसके क्या मायने हो सकते हैं? यही न कि यदि लड़की यौन रूप से सक्रिय हो गई है तो उसको यहां- वहां भागने और भटकने से रोका जाना अनिवार्य है। ईसा-पूर्व ग्रीस में वेश्याएं ऐसे जूते पहनती थीं जिनके तल्लों पर उभरे हुए अक्षरों में कुछ लिखा होता था।

पहले करियर फिर शादी

करियर में ऊंची छलांग और आर्थिक तौर पर स्वावलंबी होने की जद्दो जहद में लड़कियों की शादी में जहां एक ओर देरी हो रही है, वहीं कुछ लड़कियां ऐसी भी हैं जो मनमाफिक लड़के की तलाश में शादी के बंधन में बंधने में देरी कर रही हैं। लड़कियों की शादी में देरी में आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक मामले कितने जिम्मेदार हैं, ये अहम है क्योंकि जब शादी की परिभाषा ही बदल जाए और इसे सिर्फ समझौता माना जाने लगे तो शादी को लेकर दोबारा से सोचना जरूरी हो जाता है

डॉ. मोनिका शर्मा 

तीस साल की निधि मुंबई में एक अच्छे ओहदे पर काम कर रही हैं। उन्होंने पिछले पांच बरसों में अपना फोकस सिर्फ करियर पर ही कर रखा था और शादी के बारे में सोचा तक नहीं। अब निधि विवाह के बंधन में बंधकर घर बसाना चाहती हैं लेकिन शादी का निर्णय करने के लिए उन्हें और उनके परिजनों को कई ऐसे बिंदुओं पर भी विचार करना पड़ रहा है जो आज से कुछ साल पहले तक लड़की और उसके परिवारवालों के लिए विचारणीय नहीं थे। ऐसी ही कहानी संचिता की भी है जो फिलहाल अपना ध्यान अपने करियर पर लगा रही हैं। वह पूरे आत्मविश्वास से स्वीकारती है, ‘मैं सिंगल और खुश हूं। मुझे शादी की कोई जल्दी नहीं। जब तक मुझे सही मायने में समझने वाला जीवन- साथी नहीं मिलता, मैं इंतजार करना चाहूंगी। कभी भी ऐसे रिश्ते के लिए ‘हां’ नहीं कहूंगी जो मुझे पूर्णता न देकर बस एक बंधन में बांध दे।’
गौरतलब है कि बीते कुछ बरसों में हमारे समाज के भीतर करियर में सफल और आत्मनिर्भर व्यक्तित्व की धनी निधि और संचिता जैसी लड़कियों की संख्या तेजी से बढ़ी है, जो देरी से शादी करती हैं। उनके लिए शादी को प्राथमिकता देने की सोच वैसी नहीं है जैसी पहले हुआ करती थी। बड़ी उम्र में घर बसाना आजकल आम बात है या यूं कहें कि यह एक ट्रेंड बनता जा रहा है।

मौजूदा मंत्र पहले करियर फिर शादी, यही है मौजूदा दौर का मंत्र। पहले खुद को, अपने जीवन को स्थापित करो और फिर करो परफेक्ट पार्टनर की तलाश। यही है देरी से शादी करने की सबसे बड़ी वजह। आज की लड़कियां विवाह से ज्यादा अपने करियर को प्राथमिकता दे रही हैं। आजकल न केवल लड़कियां बल्कि उनके परिवार भी चाहते हैं कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बाद ही बेटी शादी के बंधन में बंधे। इसलिए बड़ी उम्र तक सिंगल रहना अब कोई हैरान करने वाली बात नहीं है। कई सव्रे भी बताते हैं कि न केवल भारत बल्कि अधिकतर एशियाई देशों में शादी करने की उम्र बढ़ी है। इसका सबसे अहम कारण शिक्षित और कामकाजी लड़कियों की संख्या बढ़ना है। अब तो हमारे परिवारों में यह सोच घर कर गई है कि चाहे जितनी देरी हो जाए, शादी करियर में स्थापित होने के बाद ही की जाए। शादी को अब पारंपरिक मान्यता मानकर स्वीकार कर लेने का भाव कम हुआ है। स्वयं को स्वावलंबी बनाकर घर बसाने की सोच को बढ़ावा मिला है। अब औरों की खुशी के लिए नहीं बल्कि अपनी सोच और समझ को ध्यान में रखते हुए जीवनसाथी तलाशे जा रहे हैं।

बदली है शादी की परिभाषा शादी की पारंपरिक परिभाषा बदल चुकी है। पहले पढ़ाई के दौरान ही अभिभावक बेटी की शादी के लिए चिंतित हो उठते थे। लड़कियों के लिए करियर के विकल्प भी बहुत सीमित थे। पारंपरिक हिसाब से देखें तो भारतीय परिवारों में 20 से 25 साल की उम्र को शादी के लिए सही समझा जाता है। पर अब शादी के लिए उम्र का पैमाना कुछ और ही हो गया है। भागती-दौड़ती जिंदगी और करियर की आपाधापी में तीस साल की उम्र तो प्रोफेशनल फ्रंट पर सेटल होते-होते ही निकल जाती है। करियर के लिहाज से ही नहीं, शादी को लेकर हमारी पारिवारिक सोच में भी बड़ा बदलाव आया है। पहले जहां शादी का निर्णय पूरी तरह परिवार और रिश्तेदारों पर निर्भर करता था, अब खुद लड़कियां यह तय करने लगी हैं कि उन्हें क ब और किससे शादी करनी है। पढ़ी-लिखी आत्मनिर्भर लड़कियां यह फैसला अब वैचारिक और व्यावहारिक सोच को परखते हुए करती हैं। इसमें उन्हें अपनी बढ़ती उम्र की कोई चिंता नहीं। फिक्र है तो बस इतनी कि शादी के बाद वे पूरे सम्मान और सुरक्षा के साथ इस संबंध को जी सकें। अब शादी का निर्णय व्यावहारिक बातों को समझकर किया जा रहा है ताकि आगे चलकर शादी के रिश्ते में न तो अत्यधिक अपे क्षाएं हावी हों और न ही जन्मों का यह साथ घुटन और उपेक्षा का शिकार बने ।

जुड़े हैं विमर्श के नये विषय आज के दौर में शादी का बंधन केवल सात फेरों की रस्मअदायगी भर नहीं है बल्कि दो स्वतंत्र विचार और व्यक्तित्व वाले इंसानों द्वारा जीवन भर साथ निभाने के लिए जोड़ा जाने वाला गठबंधन है। इसलिए इस रिश्ते में बंधने से पहले लड़का और लड़की दोनों अपने मन की हर शंका, हर सवाल का जवाब पहले ही ले लेना चाहते हैं, ताकि शादी के बंधन की मिठास और रिश्तों का सोंधापन सदा कायम रहे। शादी का निर्णय करते समय करियर, पैरेंटिंग, स्वास्थ्य और वित्तीय मसलों पर खुलकर राय देने और लेने का सामाजिक माहौल पहले नहीं था। ऐसे में, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर लड़कियां और उनका परिवार शादी के लिए सोच-समझकर ही ‘हां ’ कहता है। अपनी पसंद, अपनी टाइप का लड़का, जो हर तरह से परिवार और भावी दुल्हन को पसंद आए तो ही शादी का फैसला किया जाता है। जाहिर है कि ये प्रक्रिया भी समय लेती है, जिसके चलते शादी में देरी होती जाती है।

समझौता नहीं साथी चाहिए आमतौर पर देखने में आता है कि करियर के फ्रंट पर आज की शिक्षित और आत्मनिर्भर लड़कियां समझौता नहीं करना चाहतीं और न ही वे अपनी आजादी खोना चाहती हैं। ऐसे में अब वधू पक्ष वाले परिवार भी अपनी बेटी की ख्वाहिशों और तमन्नाओं को लेकर समझौते नहीं करते। आज की कमाती-खाती बेटियों के घर वाले जानते-समझते हैं कि आगे चलकर ऐसे समझौ ते जीवन को तनाव और अपराधबोध से भर देते हैं। इसीलिए रिश्ता तय करने में देरी हो इसकी चिंता न करते हुए सहमति-असहमति के हर बिंदु पर विचार करने के बाद ही शादी के लिए ‘हां’ कहा जाता है। पहले हमारे परिवारों में लड़की की शादी की जल्दी इसलिए होती थी क्योंकि उन्हें वित्तीय और भावनात्मक सुरक्षा शादी के बाद ही मिलती थी। आज स्थिति बिल्कुल उलट है। बेटियां स्वावलंबी हैं और उनकी भी अपनी पहचान है। ऐसे में शादी में जल्दबाजी क्यों करें?

सामाजिक-पारिवारिक दबाव में कमी आज के समय में शादी कर लेने के लिए भाई-बहनों की शादी या सहेलियों की विदाई हो जाने के मामले जैसे तर्क कोई स्थान नहीं रखते। अब शादी एक व्यक्तिगत या पारिवारिक मामला है। विवाह से जुड़े निर्णय में देरी या जल्दबाजी के मसले पर समाज और परिवार का दबाव पहले की तरह नहीं है। इसीलिए बढ़ती उम्र भी कोई बड़ा मुद्दा नहीं रहा। सिंगल रहकर अपने करियर को आगे बढ़ाने और अपने मनमुताबिक जीवनसाथी तलाशने के बदले मिलने वाला अकेलापन अब मजबूरी नहीं, स्वयं का चुना हुआ मार्ग है। बीते कुछ बरसों में शादी के बंधन में भी असुरक्षा और अलगाव के मामले बढ़े हैं, जिसे देखते हुए आज के दौर की युवतियों में कुछ और साल सिंगल रहकर, देख- परखकर शादी करने की सोच को बढ़ावा मिला है। शादी को लेकर जो निर्णय किया जाए वह सही हो, इस बात को इतनी अहमियत दी जा रही है कि अब नाते-रिश्तेदारों द्वारा भी कोई दबाव नहीं बनाया जाता है। घर हो या बाहर, अब लड़कियों का देरी से शादी करना बेचारगी या सहानुभूति का मुद्दा नहीं है।

अनुच्छेद 370-एक विशेष व्यवस्था

यह जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान करता है, जिसका आशय है :-
रक्षा, विदेशी मामले, वित्त और संचार क्षेत्र को छोड़कर तमाम अन्य कानूनों, जिन्हें भारत की संसद पारित करती है, को राज्य में लागू किए जाने से पूर्व जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा उनकी पुष्टि किया जाना जरूरी है। यह व्यवस्था 1947में जम्मू-कश्मीर के पाकिस्तान के बजाय भारत में विलय के बाबत हुई थी। इसके लिए जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराजा महाराजा हरि सिंह और भारत सरकार के बीच सहमति के बाद हुई थी। संधि पर महाराजा हरि सिंह ने दस्तखत किये थे। इसके परिणामस्वरूप जम्मू-कश्मीर के नागरिक शेष भारत में लागू कानूनों के बजाय जम्मू-कश्मीर के संविधान के तहत लागू कानून विशेष की जद में आते हैं। खासकर नागरिकता, सम्पत्ति और अन्य कुछ मूलभूत अधिकारों के मामले में यह व्यवस्था लागू होती है। जम्मू-कश्मीर के संविधान का पहला ही अनुच्छेद कहता है कि राज्य भारत का अभिन्न अंग है और अभिन्न अंग रहेगा। यह अनुच्छेद और इसके साथ ही अनुच्छेद-पांच, जिसके तहत राज्य के लिए कानून बनाने को लेकर भारत की संसद के अधिकार क्षेत्र को परिभाषित किया गया है, को संशोधित नहीं किया जा सकता। इस विशेष व्यवस्था की 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री (हरि सिंह द्वारा नियुक्त) शेख अब्दुल्ला के बीच हुई सहमति से भी पुष्टि हुई। 1952 में दिल्ली एग्रीमेंट में भी विशेष रूप से उल्लेख था कि राष्ट्रीय ध्वज के साथ ही जम्मू-कश्मीर का अपना ध्वज होना चाहिए और दोनों का दर्जा भी एक समान होना चाहिए। इस बात पर सहमति बनी थी कि राज्य का मुखिया, जिसे सदर- ए-रियासत (या प्रधानमंत्री) कहा गया, का चुनाव राज्य के विधायक करेंगे। इस एग्रीमेंट में राज्य में सामान्य आपातकाल घोषित करने के लिए राष्ट्रपति को अधिकार सम्पन्न करने वाले अनुच्छेद-352 का विरोध किया गया था। राज्य विधानसभा का कार्यकाल पांच के बजाय छह वर्ष का होता है जबकि अन्य निर्वाचित निकायों और संसद का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है। अनुच्छेद-370 को लेकर सबसे हालिया विवाद उस समय छिड़ गया जब नरेन्द्र मोदी ने बयान दिया कि यह विशेष व्यवस्था महिलाओं के साथ भेदभाव करती है। मोदी ने कहा कि राज्य की कोई महिला यदि राज्य से बाहर किसी व्यक्ति से विवाह कर लेती है, तो वह राज्य में सम्पत्ति पर अपना अधिकार खो बैठती है। हालांकि ऐसा कहा जाना सही नहीं है। पहली बात तो यह कि इस बाबत अधिसूचना को राज्य के उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था। उसके बाद पीडीपी ने एक कानून का मसौदा प्रस्ताव (जिसे नेशनल कान्फ्रेंस ने भी समर्थन दिया था) पेश किया ताकि अदालत के फैसले को निष्प्रभावी किया जा सके लेकिन वह प्रस्ताव पारित ही नहीं हो सका।

सूबे का अवाम अभी नहीं चाहता बहस

जम्मू-कश्मीर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष प्रो. सैफुद्दीन सोज से अजय तिवारी की बातचीत

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी अनुच्छेद-370 के बारे में बहस की बात कर रहे हैं, कांग्रेस इस पर क्या सोचती है? भाजपा की यही तो परेशानी है कि वह राजनीति करने के लिए कभी भी कुछ भी कहने लग जाती है। जब भाजपा के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की 6 साल केंद्र में हुकूमत थी तब भाजपा को अनुच्छेद-370 की याद क्यों नहीं आई? दरअसल, वाजपेयी भी जानते थे कि ऐसा नहीं किया जा सकता, यह बात भाजपा के भी कई नेता जानते हैं। मोदी के बारे में क्या कहें वो तो कुछ भी न जानते हैं और न समझते हैं। जब नरेन्द्र मोदी ने अनुच्छेद-370 की समीक्षा की बात कही है तो उसके पीछे भी तो कोई गहरी सोच हो सकती है। शायद वह देश की एकता के लिए ऐसा कह रहे हों? वह सालों से गुजरात के मुख्यमंत्री हैं, इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वे कुछ जानते नहीं हैं? नरेन्द्र मोदी कन्फ्यूज हैं। वह संविधान के इतिहास को नहीं जानते। जब वह जम्मू- कश्मीर की पृष्ठभूमि को समझते ही नहीं हैं तो फिर उनसे इस विषय पर क्या बहस करना। मोदी भी इस विषय पर क्या खाक बहस करेंगे। बहस या र्चचा उससे की जाती है, जिसे कुछ ज्ञान हो। मोदी को हम इस काबिल ही नहीं समझते तो फिर उनकी बात पर गौर ही क्यों करें। वैसे भी वह बेसिर पैर की बात कर रहे हैं। आप किस आधार पर कह रहे हैं कि अनुच्छेद-370 को हिला या डिगा नहीं सकते? या उसे बदल नहीं सकते? अनुच्छेद-370 संविधान का हिस्सा है, उसे बदला नहीं जा सकता। यह अनुच्छेद ही केंद्र और राज्य (जम्मू-कश्मीर) के बीच पुल का काम करता है। अगर केंद्र सरकार अपना कोई कानून जम्मू-कश्मीर में लागू करती है तो इस पुल के जरिए ही लागू करती है। अब तक केंद्र के 32 विधेयक जम्मू-कश्मीर में इसी तरह से लागू किए गए हैं। अगर जम्मू-कश्मीर की जनता खुद चाहे तो क्या तब भी अनुच्छेद-370 की समीक्षा नहीं हो सकती? क्या राजनीतिक दल तब भी इसकी इजाजत न देंगे? जम्मू-कश्मीर के लोग अगर इस तरह की ख्वाहिश का इजहार करें तो अवश्य समीक्षा हो सकती है। अभी राज्य के लोग नहीं चाहते कि ऐसा कुछ हो। अनुच्छेद-370 के जरिए ही बाहर के लोगों से जम्मू-कश्मीर के लोगों का रिश्ता बना हुआ है। भाजपा और मोदी ने अनुच्छेद-370 का शिगूफा इसलिए छोड़ा ताकि फसाद और झगड़े कराए जा सकें। राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए भाजपा हमेशा से यही सब हथकंडे तो अपनाती आई है। यह भी कहा जा रहा है कि महिलाओं को बाहर शादी करने पर जम्मू-कश्मीर में कोई अधिकार नहीं रह जाते हैं, उस पर आपको क्या कहना है? यह भी झूठा प्रचार है। महिलाओं को कुछ नुकसान नहीं होता है, उन्हें सम्पत्ति में हिस्सा भी मिलता है। राज्य में महिलाओं के लिए अलग कानून हैं। मोदी सारा कुछ झूठ ही कहते हैं; इसलिए महिलाओं के अधिकारों को लेकर भी वह कह रहे हैं।

बदले सुर का समय

पुष्प सराफ राजनीतिक विमर्शकार

जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में लागू संविधान के अनुच्छेद-370 पर संवाद की नरेन्द्र मोदी की पेशकश विवादित हो गई है। यह सही है कि जनसं घ-अवतार से लेकर भाजपा के रूप में अपने कायाकल्प तक; देश की इस मुख्य विपक्षी पार्टी का रुख कठोर रहा है। हालांकि राजग शासन को साकार करने के लिए भाजपा ने तब इसे स्थगित कर दिया था। अब मोदी ने‘संतुलित और लोकतांत्रिक दृष्टिकोण’ रखते हुए इस अनुच्छेद की राज्य के संदर्भ में उपयोगिता की समीक्षा किये जाने की बात की है। इसके बावजूद यह बात सियासी हलकों के हलक में आसानी से नहीं उतर रही है तो इसलिए कि संवाद के आह्वान का समय गलत है। दूसरे, वह राजनीतिक लाभ पाने की मंशा से सर्वथा अछूती नहीं है। जम्मू-कश्मीर भारतीय गणराज्य में विलय के समय से ही अतिसंवेदनशील मसला रहा है। फिर वह अलगाववादी और अब आतंकवादी समस्या से ग्रस्त है। जम्हूरियत की जड़ें मजबूत होने के समानांतर ये स्थितियां भी बनी हुई हैं। इसलिए यह सूरतेहाल अनुच्छेद-370 को शिथिल या उन्मूलन करने या इस पर र्चचा करने के मुफीद नहीं हैं। यही वजह है कि न केवल धर्मनिरपेक्ष या मध्यमार्गी दल बल्कि अवाम का एक बड़ा हिस्सा अनुच्छेद -370 को छेड़ने को ‘आ बैल मुझे मार‘ जैसा मानता है। हालांकि इसके साथ यह भी देखना चाहिए कि क्या बिगाड़ के डर से कोई बात न शुरू की जाए ही न? किसी भी मसले पर संवाद लोकतंत्र का बुनियादी सिद्धांत है। लिहाजा, र्चचा से बचना नहीं चाहिए और व्यापक सहमति-असहमति के आधार पर कोई फैसला लिया जाना चाहिए। हालांकि मोदी ने इस अनुच्छेद पर र्चचा की आड़ में कुछ गलत भी तथ्य दिये हैं-यह कि गैर कश्मीरी से शादी करने पर महिलाओं के हक खत्म हो जाता है या उद्योग-धंधों के फैलाव में 370 आड़े आता है। महिलाओं का हक खत्म करने की कोशिश सफल नहीं हुई है। दूसरे यह कि उद्योगों को फैलाव न देने के लिए अनुच्छेद नहीं भौगोलिक परिस्थितियां जिम्मेदार हैं। हस्तक्षेप का यह अंक अनुच्छेद-370 पर र्चचा की भाजपा की मंशा, उसकी टाइमिंग, प्रावधान के सही मतलब और महिलाओं के हालात पर वस्तुपरक विचार करता है-

भारत संघ में जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा सुनिश्चित करने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को लेकर पिछली एक दिसम्बर को भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने जो कहा उससे बीते साठ से ज्यादा साल से उनकी पार्टी जो कुछ कह-सुन रही थी, वह एकदम से बदल गया है। जम्मू-कश्मीर के सीमांत नगर जम्मू में अब तक की सबसे बड़ी सार्वजनिक सभा को संबोधित करते हुए मोदी ने मार्के वाली तार्किक बात कही। यह कि इस बात पर र्चचा होनी चाहिए कि अनुच्छेद 370 की व्यवस्था से क्या राज्य की जनता को फायदा हुआ है या नहीं? उनका यह मत भाजपा द्वारा दशकों से इस अनुच्छेद को हटाए जाने की मांग के कतई उलट है। भाजपा कहती रही है कि भारत संघ और जम्मू-कश्मीर राज्य के बीच वही सम्बन्ध होना चाहिए जो संघीय सरकार का अन्य राज्य सरकारों के साथ है। भाजपा जानबूझकर अभी तक अपनी आंखें मूंदे हुए थी। भाजपा ही नहीं बल्कि उसके जनसंघ और प्रजा परिषद सरीखे अवतार भी देश के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य की जमीनी हकीकतों से बेखबर रहे। वे इस बात से भी गाफिल रहे कि भारत और पाकिस्तान के वजूद में आने के दो माह बाद ही 27 अक्टूबर, 1947 को भारत पर चढ़ाई किए जाने की पृष्ठभूमि क्या थी? पार्टी ने जोर-शोर से यह नारा बुलंद किए रखा, ‘एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान नहीं चलेंगे’। यानी एक देश में दो संविधान, दो प्रधानमंत्री और दो ध्वजों की खिलाफ पार्टी करती रही। जम्मू-कश्मीर का पृथक संविधान रहा है। उसका पृथक ध्वज भी रहा। और उसके लोकप्रिय नेता को 30 मार्च, 1965 तक ‘प्रधानमंत्री’ भी कहा जाता रहा था। तीस मार्च, 1965 को इस पदनाम में बदलाव लाया गया और मुख्यमंत्री का नाम दिया गया। साथ ही, राज्य में संवैधानिक मुखिया, जिसे सदर-ए-रियासत कहा जाता था, का नाम भी बदल कर गवर्नर कर दिया गया।

भाजपा के रुख में संजीदा बदलाव यह कोई साधारण बात नहीं है कि नरेन्द्र मोदी ने अपने मूल विचार को ही बदल दिया है। लेकिन इतना साफ है कि उन्होंने अपने तई यह बात जतला दी है कि उनकी पार्टी के लिए जो मुद्दा सर्वाधिक संजीदा रहा है, उस पर वह र्चचा करने को तैयार हैं। उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि वह उन तमाम गंभीर मुद्दों पर खुले मन से बात करने को तैयार हैं, जिन्हें लेकर उनकी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता जज्बाती होकर जूझते रहे हैं। दरअसल, यह बदलाव दर्शाता है कि वह अपनी पार्टी द्वारा तय किए गए लक्ष्य को हासिल करने को तत्पर हैं। मोदी इस बात को लेकर जागरूक लगते हैं कि उन्हें अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए अड़ियल रुख छोड़कर संतुलन बनाए रखना होगा। जम्मू-कश्मीर में भाजपा को इस प्रकार के प्रयास से बेहद फायदा होने की उम्मीद उन्हें है। इस संवेदनशील राज्य के जम्मू क्षेत्र में भाजपा का कांग्रेस की भांति ही अपना जनाधार है। अलबत्ता, कांग्रेस के विपरीत इसका जनाधार हिंदू बहुल चुनाव क्षेत्रों तक ही सीमित है। इसके मुकाबले कांग्रेस का कहीं ज्यादा बड़े क्षेत्र में जनाधार है। इसके साथ ही उसे कश्मीर घाटी के कुछ हिस्सों में भी समर्थन मिल जाता है। लद्दाख क्षेत्र की चार विधान सभा सीटों पर भी कांग्रेस को पारम्परिक तौर पर समर्थन मिल रहा है। इस कारण से गठबंधन में सरकार बनाने के मौके पर नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी दोनों को ही कांग्रेस के सहयोग की जरूरत पड़ती है। भले ही घाटी में नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी कट्टर विरोधी पार्टियां हों लेकिन दोनों ही समान रूप से भाजपा को नापसंद करती हैं। भाजपा का घोषित हिंदुत्व भला उन्हें कैसे रास आ सकता है! इसी के साथ भाजपा अनुच्छेद 370 को हटाने की बात भी जोर-शोर से कहती रही है। इस मांग से दोनों पार्टियों के घाटी और जम्मू क्षेत्र की पहाड़ियों में मौजूद मुस्लिम वोट बैंक में खीज पैदा होती है। लेकिन इसी के साथ नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी अपने राजनीतिक अस्तित्व से जुड़ी सच्चाई को भी अनदेखा नहीं कर सकतीं। अब तक का उनका रवैया बताता है कि वे भाजपा के नेतृत्त्व में जाने तक को भी तैयार रहती हैं। नेशनल कान्फ्रेंस के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला केंद्र में भाजपा नीत राजग सरकार में मंत्री थे। बहुत पहले नेशनल कान्फ्रेंस और भाजपा (तब की जनसंघ) एक बार जम्मू के निर्वाचित नगर निगम में सत्ता सहयोगी थे। कौन भूल सकता है कि दोनों पार्टियां प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी की घोर प्रशंसक रही थीं।

सुर बदल लेंगी सूबे की पार्टियां मोदी की अभी जो भी और जैसी भी आलोचना नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी कर रही हैं लेकिन अगले साल यदि मोदी प्रधानमंत्री बन जाते हैं, तो दोनों ही अपना सुर बदल भी सकती हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अनुच्छेद- 370 को लेकर उनका स्टैंड बदल जाएगा। वे घाटी में अपने जनाधार को खो देने के भय से अपना विरोध जारी रखेंगी। लेकिन वे इस अनुच्छेद को लेकर र्चचा-औपचारिक या अनौपचारिक-के विचार की हामी हो सकती हैं। इसलिए अनुच्छेद-370 पर र्चचा की बात कहा जाना भाजपा के लिए इस अनुच्छेद के खात्मे की बात कहने के मुकाबले एक बेहतर रणनीति है। इससे आगामी असेंबली चुनाव 2014 में पर्याप्त सीटें जीतने की स्थिति में भाजपा को नेशनल कान्फ्रेंस या पीडीपी के साथ सरकार बनाने में कांग्रेस को पछाड़ने में सहायता मिल सकती है। इससे मोदी को जम्मू क्षेत्र में पार्टी के पारम्परिक समर्थन को भी अपने साथ बनाए रखने में मदद मिलेगी। लम्बे समय से खास तौर पर जम्मू शहर और समूचा प्रांत आरएसएस का उत्तर भारत में अच्छा प्रभाव क्षेत्र रहा है। (जम्मू-कश्मीर के दो प्रशासनिक प्रभागों में से यह एक प्रभाग जबकि दूसरा कश्मीर प्रभाग है)। एक दिसम्बर को मोदी का जो स्वागत हुआ, वह आंखें खोल देने वाला रहा। ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया कि यहां के लोगों ने आरएसएस या भाजपा के किसी नेता के लिए इस प्रकार पलक-पांवड़े बिछाएं हों। यहां तक कि 1983 में फारूक अब्दुल्ला से जोरदार मुकाबला कर रहीं इंदिरा गांधी का भी इस कदर स्वागत नहीं हुआ। शहर के मौलाना आजाद मेमोरियल स्टेडियम पर उमड़ी भीड़ ने हर किसी को चकित कर दिया। कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि यह लोगों की स्वत: स्फूर्त भीड़ थी। ऐसी नहीं कि जिसे पार्टी ने कोशिश करके जुटाया हो। यह केवल पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं की भीड़ नहीं थी। भाजपा के लिए जम्मू-कश्मीर में तो यह स्थिति खुशी मनाने का सबब कही जा सकती है। यह बात इससे भी पता चलती है कि जम्मू तथा ऊधमपुर लोक सभा सीटों (राज्य में छह लोक सभा सीटें हैं) के लिए पार्टी टिकट के तलबगारों की संख्या बढ़ गई है

जो वास्तविकता है लेकिन यह भी स्पष्ट है कि मोदी को अपना होमवर्क और भी गंभीरता से करना होगा। अपनी पार्टी के ज्यादातर नेताओं की तरह ही उन्होंने जम्मू-कश्मीर से संबद्ध संवैधानिक प्रावधानों या विशेष व्यवस्थाओं के प्रति पूरा सम्मान नहीं दिखाया है। जैसे कि उनके यह कहे जाने पर तीव्र प्रतिक्रिया हुई है कि मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को जो फायदे मिल रहे हैं, वे उनकी बहन सारा पायलट (केंद्रीय मंत्री सचिन पायलट की पत्नी) को नहीं मिल पा रहे। मोदी कहना चाह रहे थे कि राज्य का स्थायी निवासी (स्टेट सब्जेक्ट) यदि कहीं बाहर की महिला से शादी करता है, तो उसका विशेष दर्जा बरकरार रहता है, जबकि राज्य की कोई महिला बाहर के किसी पुरुष से विवाह कर लेती है, तो उसका दर्जा कायम नहीं रह जाता। यह बात सच नहीं है। ऐसा पहले जरूर होता था लेकिन अब नहीं। करीब एक दशक पहले न्यायिक हस्तक्षेप के चलते बाहरी व्यक्ति से विवाह करने वाली महिला का अब राज्य में विशेष दर्जा समाप्त नहीं हो जाता। अदालत का यह फैसला नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी के कानून बनाकर इसे बदलने के तमाम प्रयासों के बावजूद बरकरार शेष पृष्ठ दो पर..

बीते वर्षो में अनेक केंद्रीय लाभकारी कानून जम्मू-कश्मीर में लागू किए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट, भारत निर्वाचन आयोग तथा कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया के अधिकार क्षेत्र को जम्मू-कश्मीर तक बढ़ाया गया है। इससे पहले के पदनाम बदलते हुए मु ख्यमंत्री और गवर्नर नए पदनाम लागू किए जा चुके थे । ऐसा जम्मू-कश्मीर के सहयोग और सहमति से किया गया जिससे इस राज्य के शेष देश के साथ सम्बन्धों में मजबूती आई। राज्य से बाहर के उद्यो गपतियों को पीर पंजाल के दोनों तरफ अपनी यूनिटें लगाने के लिए प्रोत्साहन दिए गए जिनमें लीज एग्रीमेंट भी शामिल थे। भारत संघ से जुड़ने के बाद से जम्मू-कश्मीर ने एक लम्बा रास्ता तय किया है। यदि लोकतांत्रिक प्रक्रिया और तकाजों को ठेस पहुंचाने के प्रयास नहीं किए गए होते तो यह सिलसिला खासा गतिवान हो सकता था। बहरहाल, यह एक अलग विषय है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अनुच्छेद 370 में भी कुछ सुदृढ़ प्रावधान किए गए हैं।

विस्थापितों पर नरेन्द्र की नजर नहीं

प्रो. भीम सिंह मुख्य संरक्षक, पैंथर पार्टी

मोदी ने 63 साल से बिना किसी नागरिक और राजनीतिक अधिकार के रह रहे पाकिस्तानी रिफ्यूजियों का कोई जिक्र नहीं किया।ंपाक अधिकृत कश्मीर से आए एक करोड़ भारतीय नागरिक जो राज्य में आज तक बसाए नहीं जा सके हैं। वे ये भी भूल गए कि उन रिफ्यूजियों का क्या हश्र हुआ, जो 1965 से भारत सरकार द्वारा छम्ब और देवा बटाला से उजाड़े गए थे। करीब चार लाख कश्मीरी विस्थापितों और डोडा, रामबन, किश्तवाड़, पुंछ, राजौरी, रियासी और अन्य स्थानों से उजड़े पचास हजार विस्थापितों को आज तक हकदार होते हुए भी कोई राहत मुहैया नहीं कराई गई

नरेन्द्र मोदी ने हालांकि अपने भाषणों में 63 साल से बिना किसी नागरिक और राजनीतिक अधिकार के रह रहे पाकिस्तानी रिफ्यूजियों का कोई जिक्र नहीं किया। जबकि यह बड़ा मुद्दा है और अनुच्छेद-370 पर बहस कराने जितना महत्त्वपूर्ण है। मोदी यह बताना भी भूल गए कि पाक अधिकृत कश्मीर से आए एक करोड़ भारतीय नागरिक राज्य में आज तक बसाए नहीं जा सके हैं। वे यह भी भूल गए कि उन रिफ्यूजियों का क्या हश्र हुआ, जो 1965 से भारत सरकार द्वारा छम्ब और देवा बटाला से उजाड़े गए थे। करीब चार लाख कश्मीरी विस्थापितों और डोडा, रामबन, किश्तवाड़, पुंछ, राजौरी, रियासी और अन्य स्थानों से उजड़े पचास हजार विस्थापितों को आज तक हकदार होते हुए भी कोई राहत मुहैया नहीं कराई गई जबकि इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय ने भी निर्देश दिए थे। मोदी ने युवा खून को भी निराश किया, खासकर राज्य सरकार द्वारा गैरराजपत्रित भर्तियों में रखे गए युवाओं को बहुत थोड़ी तनख्वाह दी जा रही है। अनुच्छेद 370 पर मोदी को उमर अब्दुल्ला के शुभचिंतकों ने समझाया था लेकिन वे फिर भी इसके दुरुपयोग की रिपोर्ट को पेश करने में विफल रहे जबकि भाजपा के पुराने घोषणापत्रों में अनुच्छेद-370 के निरस्त किए जाने की मांग की जाती रही है। यहां तक कि मोदी इस अनुच्छेद में संशोधन के बारे में नहीं बोल सके। अनुच्छेद-370 पर बहस की उन्होंने वकालत की, जो कि नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस तथा साम्यवादी पार्टियों का नारा ही रहा है। मोदी को शायद यह भी नहीं मालूम था कि भारत की संसद को जम्मू-कश्मीर पर कोई कानून बनाने से वंचित किया गया है। स्थायी निवासियों के दज्रे पर कानून की क्षमताओं का अनुच्छेद-370 से कोई लेनादेना नहीं है। स्थायी निवासी की परिभाषा महाराजा द्वारा 1927 में ‘स्टेट सब्जेक्ट‘ के सम्बन्ध में जारी किए गए राज्यादेश से बनाई गई है। महिलाओं के सम्बंध में स्थायी निवासी कानून और गैर-स्थायी निवासी कानून के बीच में क्या सम्बंध है, इन दो कानूनों को समझे बिना मोदी ने टिप्पणी की। 1975 में तत्कालीन राजस्व मंत्री मिर्जा अफजल बेग ने राजस्व मंत्री की हैसियत से एक नियम बनाया था कि जो महिला राज्य के बाहर के किसी गैर-स्थायी निवासी से शादी करेगी तो उसे स्थायी निवासी के अधिकारों से वंचित कर दिया जाएगा। इसका मतलब यह है कि इस मामले में राज्य से बाहर शादी करने वाली महिला अपने नागरिक और राजनीतिक अधिकार खो देगी। इस कानून को अनेक महिलाओं ने चुनौती दी, जिनमें जम्मू-कश्मीर के पूर्व प्रधानमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद की पुत्री रुबिना बख्शी, पोश चरक, जानीमानी डोगरी कवयित्री पद्मा सचदेव, लद्दाख की आंगमों शानो और कई अन्य स्थायी निवासी बेटियां शामिल थीं। 2001 में जम्मू- कश्मीर उच्च न्यायालय की पूरी बेंच ने सरकार के इस आदेश को रद्द कर दिया और इसे बदनीयती से भरा, पक्षपाती और अधिकारातीत बताया। सर्वोच्च न्यायालय ने तो इस मामले में सुनवाई ही नहीं की। नवम्बर, 2002 में मुफ्ती मोहम्मद सईद के मुख्यमंत्रित्व में एक गठबंधन सरकार बनी। इस सरकार ने उच्च न्यायालय के इस निर्णय के विपरीत कानून लाने की कोशिश की। जम्मू-कश्मीर की विधानसभा ने इस बिल पर बिना बहस और विधायकों को बिना किसी अग्रिम सूचना के ध्वनिमत से पारित कर दिया। जम्मू-कश्मीर विधान परिषद ने इस मामले को कई दिनों तक सुना। सरकार के पास एक मत कम था। इस लेखक (प्रो. भीम सिंह) ने इस विधेयक का समर्थन करने से इनकार कर दिया, तब पैंर्थस पार्टी गठबंधन सरकार में शामिल थी। इसी एक वोट की कमी ने सारा अंतर पैदा कर दिया। मैंने विधान परिषद में अपनी सबसे बड़ी बहस की और विधान परिषद अध्यक्ष अब्दुल राशिद डार ने घोषणा की कि सरकार एक मत से अल्पमत में रह गई है क्योंकि प्रो. भीम सिंह ने इस विधेयक के विरोध में मत किया है। पैंर्थस पार्टी का यह एक ऐतिहासिक निर्णय था, जिसने जम्मू-कश्मीर की महिलाओं के लिए इंसाफ और समानता के सभी द्वार खोल दिए थे। 2002 से ऐसी महिलाओं पर अपनी विरासती जायदाद पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा क्योंकि उन्हें शादी करने अथवा शादी न करने पर भी स्थायी निवासी प्रमाणपत्र दिया जाता था। मोदी को इस गलतबयानी से बचना चाहिए था, फिर भी उन्होंने जो कुछ कहा वह सराहना के योग्य है। अनुच्छेद-370 द्वारा संसद की शक्ति पर प्रतिबंध लगाया गया है, जिसे संसद भारतीय संविधान की धारा-368 के हवाले से स्वयं संशोधित कर सकती है। संसद को अधिकार है कि वह जम्मू-कश्मीर के बारे में कानून बना सके, बदल सके, संशोधन कर सके अथवा संविधान के आधारभूत ढांचे में दिए गए प्रावधान को छोड़कर किसी प्रावधान को रद्द भी कर सकती है। रिकॉर्ड पर अनुच्छेद- 370 एक स्थायी प्रावधान है और इसको जारी रखने का कोई औचित्य नहीं है। अनुच्छेद-370 के अस्थायी प्रावधान पर एक भयंकर भूल नजर आती है, जिसे 1950 में भारत के संविधान में शामिल किया गया था, तब इसका मुख्य उद्देश्य था महाराजा हरि सिंह की राजकीय शक्तियों पर नियंत्रण। 1950 में संविधान सभा ने महाराजा के अधिकार को रद्द नहीं किया था। महाराजा को राजा के रूप में बने रहने दिया गया और इसका उद्देश्य था शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को खुश रखना, जिससे महाराजा के बाद शेख अब्दुल्ला सुल्तान बनने के सपने संजोए रख सकें। अनुच्छेद-370 1952 में निष्फल हो गई, जब जम्मू- कश्मीर विधानसभा ने 20 अगस्त को एक पंक्ति का प्रस्ताव पास करके राजशाही को समाप्त कर दिया। महाराजा की सभी शक्तियां उसी दिन निरस्त हो गई, जब राजशाही से उन्हें अपदस्थ किया गया यानि 1947 में जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय तक। अनुच्छेद 370 को जब सरसरी तौर पर भी पढ़ा जाए तो यह लगता है कि यह महाराजा द्वारा बनाई गई सरकार पर ही लागू होता है। इसमें उल्लेख है कि वह कोई भी कानून तब तक जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं हो सकता, जब तक कि जम्मू-कश्मीर के महाराजा द्वारा बनाई गई जम्मू-कश्मीर की सरकार उसको अनुमोदित नहीं कर देती। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह अनुच्छेद महाराजा की शक्तियों को कम करने के लिए बनाया गया था। जब महाराजा अपदस्थ हो गए तो यह भी स्वत: निष्फल हो गया। यह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है कि भाजपा धारा-370 के नाम पर राष्ट्रवादी वर्ग के लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर रही है। नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस तो लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर ही रही हैं।

कश्मीरी पंडितों के मसले भी करें हल

कश्मीर पंडित अकेले पड़ गए हैं। पृथकतावादियों और तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों की मांगें गैर-वाजिब हैं। वे कश्मीर घाटी में स्वायत्तता की बात करते हैं। खुद के शासन और आजादी की बात कह रहे हैं। यही वह बात जिसे लेकर उनका और कश्मीरी पंडितों के बीच गहरा मतभेद है। दोनों पक्ष एक जगह पर इन मुद्दों के मद्देनजर एक जगह नहीं बैठ सकते। उनमें मतभेद का यह एक बड़ा कारण है

कुंदन कश्मीरी अध्यक्ष, कश्मीरी पंडित कान्फ्रेंस

इन दिनों अनुच्छेद 370 को लेकर देश भर में र्चचा है। अनुच्छेद-370 जम्मू-कश्मीर में अस्थायी तौर पर लागू किया गया था। ध्यान दें तो पाएंगे कि अनुच्छेद 370 की भाषा मुलम्ममा भर लगती है, वास्तविक नहीं। इस करके ऐसा कुछ नहीं है जिससे कहा जा सके कि यह अनुच्छेद किसी क्रिया से अपवित्र हो जाए। अनुच्छेद का गहराई से अध्ययन करें तो पाएंगे कि इसमें संशोधन करने की बाबत कोई स्पष्ट सीमाएं नहीं हैं। इसलिए इस कानून के खात्मे में किसी तरह की कोई बाधा नहीं है। यदि भारतीय संसद चाहती है तो इस प्रकार का फैसला कर सकती है। इस अनुच्छेद के चलते जम्मू-कश्मीर को राष्ट्र की मुख्यधारा में आने में दिक्कत हुई। साथ ही, राज्य को शर्मिदगी उठानी पड़ी। राज्य के बाहर से आने वाले उद्यमियों को यहां निवेश करने से इस अनुच्छेद ने रोका है। अनुच्छेद की व्याख्या इस प्रकार से की गई कि देश को इसका खमियाजा भुगतना पड़ रहा है। कश्मीरी अलगाववादी और घाटी की तथाकथित मुख्यधारा अनुच्छेद- 370 को अपने साम्प्रदायिक एजेंडा को लागू करने में इस्तेमाल कर रहे हैं और गैर-मुस्लिमों को साम्प्रदायिक राजनीति का शिकार बना रहे हैं। अलगाववादी इस व्यवस्था की इस प्रकार से व्याख्या कर रहे हैं कि यह व्यवस्था राज्य में मुस्लिम बहुलता को पनपाए रखने के लिए की गई है। नतीजतन, यह समूचा क्षेत्र पलायन की समस्या से ग्रस्त है। साथ ही, जम्मू एवं कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताए जाने की बात पर भी यह व्यवस्था एक चुनौती की तरह दरपेश है। इसके चलते वर्ष 1989-90 में कश्मीरी पंडितों को अपने घर छोड़ने पर विवश होना पड़ा। ऐसे इलाके जहां साम्प्रदायिक लोग बहुलता में हैं, वहां से पृथकतावादी तत्वों को हवा मिलती है। यदि यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होता तो हिंदुओं को अपने घर-बार नहीं छोड़ने पड़ते। उन्हें वहां अल्पसंख्यक हो जाने का दर्द झेलना पड़ा। अनुच्छेद-370 को एक समय बाद समाप्त करने का भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1963 में संसद में प्रतिबद्धता जताई थी। सरदार पटेल के यह मुद्दा उठाए जाने पर उन्होंने यह प्रतिबद्धता जताई थी। आज यह भारत सरकार और राष्ट्रवादी ताकतों के साथ ही संवैधानिक विशेषज्ञों का दायित्व है कि अनुच्छेद-370 को उचित परिप्रेक्ष्य में देखा जाए और जाना जाए कि यह क्या सोच कर लागू किया गया था। जरा इन कश्मीरी नेताओं पर गौर कीजिए। ये अपने देशवासियों को जम्मू एवं कश्मीर में रहने नहीं देना चाहते और न ही भारत का कानून राज्य में लागू करना चाहते लेकिन दूसरी तरफ देश भर में खुद के आने-जाने और रहने-बसने की पूरी आजादी चाहते हैं। वे देश में भर में कहीं भी आ-जा सकते हैं। कार्य कर सकते हैं। भारत में कहीं भी कारोबार कर सकते हैं। देश में कहीं भी मकान बना सकते हैं। और किसी भी राज्य में जाकर पढ़ाई कर सकते हैं। लेकिन वे अपने देशवासियों को जम्मू एवं कश्मीर में ऐसा किए जाने पर उन्हें आपत्ति है। वे इस बात की भी अनदेखी करते हैं कि पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) में इस प्रकार का कोई अनुच्छेद नहीं है जो पाकिस्तान के लोगों को वहां सेटल होने से प्रतिबंधित करता हो। न ही वहां पाकिस्तान के कानून लागू किए जाने पर कोई रोक है। इस पर इन कश्मीरी नेताओं को क्या कहना है। यहां तक जम्मू एवं कश्मीर का कुछ हिस्सा चीन को दिया गया तो कश्मीर के ये नेता चुप्पी साधे रहे। लेकिन ये ही नेता अनुच्छेद 370 को स्थायी तौर पर राज्य में लागू किए जाने को लेकर जमीन- आसमान एक किए हुए हैं। यही नहीं कश्मीर में सौहार्द का माहौल बिगाड़ने में भी पीछे नहीं रहते। यहां यह कहना चाहूंगा कि आज समूचा विश्व एक वैश्विक गांव बन चुका है। राजनीतिक तौर-तरीकों में भी एक प्रकार की सापेक्षता आ चुकी है। आज जो नया वैश्विक स्थितियां हैं, उनमें किसी को भी समूची विश्व में कहीं भी रहने की आजादी है। अनुच्छेद-370 जैसी बाध्यता तो कहीं भी देखने को नहीं मिलती। ये वैश्विक स्थितियां कश्मीरियों के लिए भी क्यों नहीं रहनी चाहिए। रह सकती हैं। शर्त यह है कि वे समझदारी से काम लें और यह जानें कि किस प्रकार से इन स्थितियों का फायदा उठाया जा सकता है। जहां तक कश्मीरी पंडितों के घाटी में लौटने का प्रश्न है, अपनी पुरानी जगहों पर पहुंचने का सवाल है, तो सबसे जरूरी है जम्मू-कश्मीर में उनकी सुरक्षा। घाटी से विस्थापित होकर ये कश्मीरी पंडित देश भर में रह रहे हैं। उनके वापस लौटने के लिए जरूरी है कि वहां सुरक्षा की चाक-चौबंद व्यवस्था की जाए। यहां ध्यान रखना होगा कि केवल उनके वापस लौटने के संदर्भ में जरूरी है कि घाटी में रह रहे लोग उनका स्वागत करने को तैयार हों। वहां अब उन्हें लौटने पर नए पड़ोसी मिलेंगे। अैर मिलेगी बंदूक के साये में पल-बढ़ कर बड़ी हुई युवा पीढ़ी। उसके साथ एडजस्ट करने की अपनी समस्याएं होंगी जिनका समाधान भी विस्थापितों के घाटी में लौटने की स्थिति में खोजना होगा। अभी राष्ट्रिवरोधी प्रदर्शन, हिंसा और घृणा आये दिन देखने को मिलती है। पाक समर्थक और अलगाववादी ताकतें भारत से कश्मीर को अलग करने के तमाम हथकंडे अपनाए रहते हैं। नागरिकों की हत्या, सीमा पार से घुसपैठ, आम जनजीवन में हर रोज का व्यवधान, स्कूलों को बंद किया जाना जैसी तमाम हकरतें अलगाववादी कर रहे हैं। इन हालात में वहां रह रहे लोगों के लिए विस्थापन का दंश झेल कर लौटे कश्मीरी पंडितों का खुले दिल और खिले माथे स्वागत करना उतना आसान नहीं होगा। कश्मीर पंडित अकेले पड़ गए हैं। पृथकतावादियों और तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों की मांगें गैर- वाजिब हैं। वे कश्मीर घाटी में स्वायत्तता की बात करते हैं। खुद के शासन और आजादी की बात कह रहे हैं। यही वह बात जिसे लेकर उनका और कश्मीरी पंडितों के बीच गहरा मतभेद है। दोनों पक्ष एक जगह पर इन मुद्दों के मद्देनजर एक जगह नहीं बैठ सकते। उनमें मतभेद का यह एक बड़ा कारण है। यही कारण है कि कश्मीरी पंडितों के लौटने पर घाटी के दोनों समुदाय (कश्मीरी मुस्लिम और कश्मीरी हिंदू) एक साथ तो नजर आएंगे लेकिन उनके दिलों और में फर्क रहेगा। कश्मीर को लेकर उनकी सोच में खासा फर्क आ चुका है। कश्मीरी पंडितों ने घाटी में अपने घर-बार छोड़े ही इसलिए थे कि उन्हें पृथकतावादी बातों में शामिल होना मंजूर नहीं था। और अब वह पक्के मन बना चुके हैं कि घाटी में तभी लौटेंगे जब वहां पूरी तरह से भारतीय रंग में रंगा माहौल बने। वे चाहते हैं कि हालात इतने सामान्य हो जाएं कि उन्हें भारतीयता का हर कहीं अहसास हो। एक और कारण है जिसके चलते कश्मीरी पंडित घाटी में लौटना नहीं चाहते। करीब 85 प्रतिशत विस्थापित पंडितों ने अपने मकान-संपत्ति आदि बेच डाली हैं। या फिर उनके मकान- संपत्ति पर कब्जा किया जा चुका है। पहले घाटी में हिंदू-मुस्लिम-सिख-इतिहाद के नारे लगते थे जिनसे सामुदायिक सौहार्द का माहौल था। लेकिन अब वह बात नहीं रही। हालात एकदम से बदल गए हैं। शंकराचार्य, हरिपरबत, अनंतनाग जैसे नाम अब बदल गए हैं, उन्हें सुलेमान तेइंग, कोहिमारन, इस्लामाबाद जैसे मुस्लिम नामों से पुकारा जाने लगा है। आज हालत यह है कि कश्मीरी पंडितों को राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक तमाम मोर्चो पर उनकी अनदेखी की जाती रही है। वे कानून का सम्मान करने वाले लोग हैं। अपने हाथ में कानून नहीं लेते। न ही सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं। न ही किसी अन्य प्रकार की हिंसा में शामिल होते हैं। हालांकि उन्हें जिन हालात से जूझना पड़ रहा है, उन्हें देखते हुए वे ऐसा करें तो गलत नहीं होगा। वे अपने घरों को खो बैठे हैं। बहन-भाइयों से बिछड़ चुके हैं। उनके नेताओं की बिना वजह क्रूरता से हत्याएं की जा चुकी हैं। राज्य की विधानसभा, मंत्रिमंडल और संसद में उन्हें प्रतिनिधित्व देने में अनदेखी हुई है।

युवा बेपरवाह हैं इस बहस से

मुदसर नजर रिसर्च स्काल्ॉर, जेएनयू
नरेन्द्र मोदी ही नहीं बल्कि अधिकांश भारतीयों की हार्दिक इच्छा रही है कि इस अनु च्छेद को समाप्त किया जाए ताकि जम्मू-कश्मीर को अन्य राज्यों के तुल्य किया जा सके। केंद्र सरकार ने समय-समय पर विभिन्न हथकंडे अपनाए हैं प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामाजिक-धार्मिक पृष्ठभूमि के मद्देनजर खुद को सही ठहराने में जुटा है। जम्मू-कश्मीर जहां इसे जारी रखने के लिए जद्दोजहद करेगा वहीं शेष भारत इसके खात्मे के लिए दबाव बनाएगा

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 को शामिल किए जाने से अन्य राज्यों के विपरीत जम्मू-कश्मीर को भारतीय संघ में विशेष स्थान हासिल है। इसके चलते इस राज्य को कुछ हद तक स्वायत्तता भी मिली हुई है। भले ही यह सैद्धांतिक ज्यादा, व्यावहारिक कम है। जम्मू-कश्मीर का यह विशेष दर्जा 1947 से ही भारतीयों के लिए सिरदर्द रहा है। केंद्र सरकार ने समय-समय पर विभिन्न हथकंडे अपनाए हैं जिससे कि जम्मू-कश्मीर की विशेष स्वायत्तता को कुंद किया जा सके। दूसरी तरफ कश्मीरी हैं, जो कह रहे हैं कि अनुच्छेद 370 ने भी उनकी राजनीतिक दुश्वारियां कम नहीं की हैं। यह धारणाओं का द्वंद्व है और प्रत्येक पक्ष अपने हितों को ऊपर रखते हुए खुद को तर्कसंगत ठहराना चाहता है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामाजिक-धार्मिक पृष्ठभूमि के मद्देनजर खुद को सही ठहराने में जुटा है। जम्मू- कश्मीर जहां इसे जारी रखने के लिए जद्दोजहद करेगा वहीं शेष भारत इसके खात्मे के लिए दबाव बनाएगा। इस बीच, कश्मीर में समस्याएं जारी हैं और बाकी भारत में यह धारणा है कि अनुच्छेद-370 ही सारी समस्याओं की जड़ है। आतंकवादी घटनाओं या पृथकतावाद की आवाज उठने पर जम्मू-कश्मीर के विशेष दज्रे को लेकर विभिन्न पक्षों की विभिन्न राय या धारणाएं उभरती हैं। एक पक्ष नेहरू को राज्य को विशेष दर्जा देने के लिए कोसता है। इस पक्ष का मानना है कि विशेष व्यवस्था भारत की धर्मनिरपेक्षता पर काला धब्बा है। यह पक्ष मांग कर रहा है कि इस व्यवस्था को समाप्त किया जाना चाहिए। कहना न होगा कि इस पक्ष, जिसमें विहिप, आरएसएस समेत भाजपा जैसे साम्प्रदायिक कट्टरपंथी शामिल हैं, में व्यावहारिकता का अभाव है और यह जनभावनाओं को खारिज करता है। एक अन्य पक्ष का सोचना है कि राज्य में पृथकतावाद की आवाज उठने का कारण कश्मीर को विशेष दर्जा मिला होना है। भारतीयों के इस हिस्से में पढ़ेिलखे मध्यवर्गीय जन और सैन्य प्रतिष्ठान से जुड़े लोग शामिल हैं। यह हिस्सा भी चाहता है कि अनुच्छेद-370 को खत्म किया जाए। और चुपके-चुपके भाजपा जैसी राजनीतिक ताकतों को समर्थन देता है। व्यावहारिक पक्ष रखने वाले वामपंथी और कांग्रेस का मानना है कि जम्मू-कश्मीर में हालात साजगार बनाए रखने के लिए अनुच्छेद 370 एक व्यावहारिक उपाय है। ये चाहते हैं कि राजनीतिक संकट को टालने के लिए इस व्यवस्था को जारी रखा जाना चाहिए। कश्मीर में विशेष दर्जा की हिमायती राजनीतिक पार्टियों खासकर नेशनल कान्फ्रेंस का मत है कि राज्य को और ज्यादा स्वायत्तता दी जानी चाहिए या अनुच्छेद 370 को जारी रखा जाना चाहिए ताकि कश्मीर में राजनीतिक समस्या का समाधान किया जा सके। ये तमाम पक्ष विशेष दर्जा को लेकर पूरी तरह से गफलत में हैं और लोगों की वास्तविक अपेक्षाओं और इच्छाओं की अनदेखी कर रहे हैं। वे वास्तविक राजनीतिक मुद्दों की तरफ जाना ही नहीं चाहते। सच तो यह है कि कश्मीर का अवाम विशेष दर्जा को लेकर उनकी तमाम धारणाओं से सहमत नहीं है। ये तमाम अवधारणाएं वास्तव में जम्मू-कश्मीर के विशेष दज्रे को लेकर एक तरह की गफलत हैं। पहली बात तो यह कि अनुच्छेद 370 ने न तो पृथकतावाद को बढ़ावा दिया है और न ही इसने कश्मीरियों को अलगाववाद की भावनाओं से ही बचाया है। दरअसल, इतिहास की स्मृति और विवादग्रस्त इतिहास सारे संकट की जड़ हैं। इसलिए अनुच्छेद 370 का खात्मा समस्या सुलझाने के बजाय उसे और बढ़ा देगा। दूसरी बात यह कि जम्मू-कश्मीर पहले से कहीं ज्यादा एकजुट या कहें कि संघटित है और यह अनुच्छेद मात्र मुलम्मा भर है। और इसे लागू किए जाने के बाद से हालात काफी बदल चुके हैं। यहां ध्यान देना होगा कि 395 अनुच्छेदों में से 260 अनुच्छेद, केंद्रीय सूची में 97 में से 94 प्रविष्टियां और समवर्त्ती सूची में 47 में से 26 प्रविष्टियां पहले ही जम्मू-कश्मीर में लागू की जा चुकी हैं। ऐसे में इस अनुच्छेद पर र्चचा से इस स्थिति में बिगड़ाव आएगा। अनुच्छेद 370 एक ऐसी सुरंग है जिसमें से होकर खासा आवागमन हो चुका है। किसी भी प्रकार का बदलाव राज्य और केंद्र के बीच विश्वास का संकट खड़ा कर देगा। और उनके सम्बन्धों में एक प्रकार की जटिलता ला देगा। र्चचा होने पर भारत के कानूनों को लागू करने के असंवैधानिक तरीके पर भी र्चचा छिड़ जाएगी। इन्हें राज्य में भी लागू किया गया है क्योंकि अनुच्छेद 370 के तहत भाग एक ही तर्कसंगत है। इस अनुच्छेद के तहत बाकी का जो कुछ भी राज्य में लागू किया गया, वह असंवैधानिक रहा। भाजपा को इस बात की गलतफहमी है कि अनुच्छेद 370 को खत्म किया जा सकता है, जिसके लिए संसद के वोट की भी दरकार नहीं होगी और वह इस इस पर र्चचा करने की बात कह रही है। लेकिन अनुच्छेद 370 पर र्चचा से जम्मू-कश्मीर के भारत में जुड़ने को लेकर भी र्चचा होनी अपरिहार्य है। कारण, र्चचा मात्र इन दो विकल्पों-इसे रखा जाए या खत्म किया जाएतक नहीं सिमट सकेगी बल्कि भारत की संघीय सरकार के साथ जम्मू- कश्मीर के पहले से ही जटिल सम्बन्ध को यह और भी जटिल बना देगी। कानूनन उस तरीके से अनुच्छेद 370 का खात्मा सम्भव नहीं है जिस ढंग से भाजपा चाहती है। हालांकि अनुच्छेद 370 (भाग 3) कहता है, ‘इस अनुच्छेद के प्रावधानों का पालन न होने की सूरत में राष्ट्रपति सार्वजनिक अधिसूचना के जरिए घोषणा कर सकते हैं कि यह अनुच्छेद निष्प्रभावी हो गया है या वह तिथि विशेष से कुछ संशोधनों और अपवादों के साथ इसके लागू रहने की घोषणा कर सकते हैं।’ लेकिन यह अनुच्छेद यह भी कहता है, ‘इस प्रकार की अधिसूचना जारी किए जाने से पूर्व इस अनुच्छेद के भाग (2) में वर्णित राज्य की संविधान सभा से इस आशय की सिफारिश मिलना अनिवार्य है।’

यदि यह र्चचा फिर से खुलती है तो कश्मीर में सक्रिय अलगाववादियों की तो जैसे बन ही आएगी और भारत को उनके खिलाफ कार्रवाई करने में दिक्कत दरपेश होंगी। और फिर, जम्मू-कश्मीर विशेष दज्रे से खुश है तो क्या हर्ज है? दुर्भाग्य की बात है कि समय गुजरने के साथ ही अनुच्छेद 370 को ‘जारी रखने या खत्म करने’ जैसे नारों ने कुछ लोगों खासकर राजनीतिक पार्टियों को खासा व्यस्त कर दिया है। वे इस मुद्दे को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करने में जुटी हैं। उनका यह सोचना भ्रम है कि इसके खात्मे से उनकी समस्याएं खत्म हो जाएंगी। जहां तक कश्मीरियों की युवा पीढ़ी की बात है तो उनके लिए इस अनुच्छेद पर र्चचा फिजूल है और इस पर र्चचा बेमानी है। राजनेताओं द्वारा इस मुद्दे पर छिड़ी लड़ाई से युवाओं का नजरिया अलग है। वे एकमत से कश्मीर की समस्या को राजनीतिक समस्या मानते हैं और इसका राजनीतिक समाधान तलाशे जाने के हामी हैं।

बदले सुर का ..

है। दोनों पार्टियां इस फैसले को बदलने के लिए की गई कोशिशों में सफल न हो सकीं। मुझे विभिन्न राज्यों खासकर हिंदीभाषी राज्यों में लम्बे अनुभव से जानने को मिला कि ज्यादातर लोग, जिनमें भाजपा भी शामिल हैं,अनुच्छेद-370 और राज्य विषयक कानूनों में अंतर के बारे में ज्यादा नहीं जानते। यदि कोई बाहरी व्यक्ति जम्मू-कश्मीर में भूमि नहीं खरीद पाता या राज्य सरकार की नौकरी हासिल नहीं कर पाता तो यह अनुच्छेद-370 के चलते नहीं है। कुछ राज्य विशेष कानून हैं (वे सभी डोगरा महाराजाओं खासकर महाराजा हरि सिंह के समय से जारी हैं) जो किसी महिला/पुरुष को राज्य के स्थायी निवासी के तौर पर परिभाषित करते हैं और उसके लिए भूमि संरक्षण की बात कहते हैं। अनुच्छेद- 370 बाकी के विधायी अधिकार जम्मू-कश्मीर असेंबली को प्रदान करता है। संसद द्वारा पारित कोई कानून जम्मू-कश्मीर में तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक राज्य की विधानसभा ने उसे मंजूर न कर लिया हो। अलबत्ता, यह व्यवस्था इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन में उल्लिखित रक्षा, विदेश मामले और संचार संबंधी मामलों के संदर्भ भें लागू नहीं होती। बीते वर्षो में अनेक केंद्रीय लाभकारी कानून जम्मू-कश्मीर में लागू किए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट, भारत निर्वाचन आयोग तथा कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया के अधिकार क्षेत्र को जम्मू-कश्मीर तक बढ़ाया गया है। इससे पहले के पदनाम बदलते हुए मुख्यमंत्री और गर्वनर नए पदनाम लागू किए जा चुके थे। ऐसा जम्मू- कश्मीर के सहयोग और सहमति से किया गया जिससे इस राज्य के शेष देश के साथ सम्बन्धों में मजबूती आई। राज्य से बाहर के उद्योगपतियों को पीर पंजाल के दोनों तरफ अपनी यूनिटें लगाने के लिए प्रोत्साहन दिए गए जिनमें लीज एग्रीमेंट भी शामिल थे। भारत संघ से जुड़ने के बाद से जम्मू-कश्मीर ने एक लम्बा रास्ता तय किया है। यदि लोकतांत्रिक प्रक्रिया और तकाजों को ठेस पहुंचाने के प्रयास नहीं किए गए होते तो यह सिलसिला खासा गतिवान हो सकता था। बहरहाल, यह एक अलग विषय है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अनुच्छेद 370 में भी कुछ सुदृढ़ प्रावधान किए गए हैं। और जो इनसे अनभिज्ञ हों तो उन्हें इनका भान हो जाएगा जब जानेंगे कि अनुच्छेद-370 को केवल संसद के फैसले से ही खत्म नहीं किया जा सकता। इसके लिए राज्य की विधानसभा की सहमति भी जरूरी है, जो केवल असेंबली के सदस्यों के साथ सार्थक र्चचा और उनमें से अधिकांश को बातचीत की मेज पर लाए जाने से ही सम्भव है। इस हकीकत को भाजपा से ज्यादा बेहतर कौन जानता होगा जिसने हमेशा ही अनुच्छेद 370 को हटाने की बात कही और सत्ता में रहते हुए इस दिशा में तनिक भी प्रयास नहीं किया।

दर्ज कराता हूं ..


संवेदनशील मुद्दों पर युवाओं के लेख भी हों 30 नवम्बर को ‘महिला यौन उत्पीड़न’ पर हस्तक्षेप संस्करण पढ़ने को मिला। इसमें लेखकों ने अपने-अपने तरीके से यौन उत्पीड़न के मामलों को उठाया है। लगभग सभी लेख तहलका के संपादक तरुण तेजपाल को केंद्रित करके लिखे गए हैं। कार्यस्थल के माहौल के सुधार पर ज्यादा जोर दिया गया है। मेरा मानना है कि यौन उत्पीड़न की शिकार अधिकतर नाबालिग व युवतियां ही होती हैं, तो यदि इस तरह के मुद्दों पर उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे युवाओं के विचार भी हों तो निश्चित रूप से यह पाठकों को पसंद आएगा। कार्यस्थल ही क्यों आज के हालात में महिलाएं कहीं पर भी अपने को सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रही हैं। यहां तक कि घर पर भी नहीं। कितने मामले ऐसे सामने आते हैं कि सगे-संबंधी ही महिलाओं का यौन शोषण करते रहते हैं। स्थिति यह है कि जिन लोगों पर महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई है, वे ही उनके लिए खतरा बने हुए हैं। कहीं शिक्षक तो कहीं रिश्तेदार और कहीं पर बॉस। कहना गलत न होगा कि बाड़ ही फसल खाने लगी है। इस मुद्दे पर उस उम्र के युवा ज्यादा अच्छे विचार दे सकते हैं, जिनके साथ इस तरह की घिनौनी हरकतें होती हैं। संस्करण में शहर में होने वाले यौन उत्पीड़न को ज्यादा केंद्रित किया गया है, पर गांवदे हात में भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। गांव-देहात में हो रहे यौन शोषण पर ग्रामीण पृष्ठभूमि के युवाओं के विचार लिए जाएं तो संस्करण में काफी तालमेल आएगा। यौन उत्पीड़न जैसे संवेदनशील मुद्दों पर लेखकों को राय देकर ऐसे लेख लिखवाए जाएं कि पाठकों को एक अच्छा मैसेज जाए और जो लोग ऐसे घिनौने अपराधों में लिप्त हैं, उनमें डर पैदा हो और वे इनसे बचें। उनमें समाज व कानून का डर हो। यौन उत्पीड़न से जुड़े समाज के माथे पर ऐसे बदनुमा दाग वाले लोगों को नहीं भूलना चाहिए कि यदि पेड़ अपनी जड़ छोड़ देगा तो उसका गिरना तय है और यही बात हमारे सामाजिक ढांचे पर भी पूरी तरह लागू होती है। वैभव राजपूत, नोएडा
हस्तक्षेप के विचारशील पाठकों की प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं। वे पूर्व की तरह हस्तक्षेप में प्रकाशित होने वाली सामग्री की प्रासंगिकता पर अपनी राय देने के साथ-साथ आयोजित मुद्दों व सवालों पर बहस में भी दखल दे सकते हैं। हालांकि सीमित स्पेस और उसमें सभी पाठकों की राय का आदर करने की हमारी भावना को देखते हुए आपसे अनुरोध है कि प्रतिक्रियाएं दस पंक्तियों से ज्यादा न दें । इसके लिए आप हमारे मेल आईडी का प्रयोग कर सकते हैं।

भाजपा का रुख नहीं बदला

अरुण जेटली राज्य सभा सांसद, भाजपा

नरेन्द्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में एक-एक हरफ अनुच्छेद-370 को बनाए जाने की पृष्ठभूमि को लेकर कहा। पं. जवाहरलाल नेहरू के इससे खुद को अलग कर लेने संबंधी आश्वासन का जिक्र किया। अनुच्छेद-370 की इसके पृथक दज्रे से शुरू हुई भारत को पृथकतावाद की तरफ धकेलने तक की यात्रा का उल्लेख करने के साथ लोगों से इस पर र्चचा का आह्वान किया। इस बात के लिए कि इसके फायदे और नुकसान को लेकर क्यों न र्चचा कर ली जाए। हमारे मीडिया के कुछ विद्वतज्जनों ने उनके कहे पहले वाक्यों को भुलाते हुए केवल आखिरी वाक्य उठाया और कह दिया कि यह भाजपा का अपने पूर्व के स्टैंड से हट जाना हुआ। हम यह साफ कर देना चाहते हैं कि हमारी पार्टी का इस पर पहले जैसा रुख है और वह टस से मस नहीं हुई है। सच तो यह है कि अनुच्छेद-370 खुद अपने ही नागरिकों को दबाने या उनके साथ भेदभाव करने का हथियार बन सकता है। यह कहना भी गलत है कि इस अनुच्छेद के जरिये राज्य को धर्मनिरपेक्ष रखा जा सका है। मेरा निजी अध्ययन तो यह कहता है कि कैसे यह अनुच्छेद लोगों को सताने और उनके साथ ऊंच-नीच करने में वहां की सरकार का साधन बन गया है। अनुच्छेद 370 की तरह अनुच्छेद 35 अ भी ऐसा ही है, जो विभिन्न अनुच्छेदों; अनुच्छेद 14 (समानता), अनुच्छेद- 15 (धर्म जाति, समुदाय या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव न करने), अनुच्छेद- 16 (सरकारी संस्थानों में रोजगार के समान अवसर और आरक्षण), अनुच्छेद - 19 के तहत मिले मौलिक अधिकार समेत बोलने की आजादी, जीने का हक और अनुच्छेद-21 के तहत स्वतंत्रता के अधिकार को खारिज करता है। मुझे लगता है कि जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का ही इस भेदभावकारी कानून से कुछ लेना-देना है, जो राज्य से बाहर विवाह करने वाली बेटियों से भेदभाव करने की बात कहता है। बेशक, राज्य में ऐसा प्रावधान रहा है। यह 2002 में खत्म कर दिया गया था। यह सच है कि नेशनल कान्फ्रेंस सरकार, जो उमर अब्दुल्ला की पार्टी की सरकार है, ने यह बात जोरदार ढंग से कही है कि राज्य से बाहर शादी करने वाली बेटियों को राज्य में विरासत में कोई संपत्ति नहीं मिलनी चाहिए। इस विचार से घबराई युवतियों ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। और उसके बाद 2004 से ही दोनों पार्टियां, पीडीपी और नेशनल कान्फ्रेंस, पुत्री-विरोधी इस कानून को फिर से लाए जाने को लेकर तमाम कोशिशें करती रही हैं। चूंकि उमर अब्दुल्ला के बात कहने का अंदाज ही इस प्रकार का रहा है, सो तमाम तथ्यों की तह में न जाते हुए हम बस इतना ही कहना चाहेंगे कि वह इतिहास नहीं बदल सकते।

महिलाओं के हक पर राजनीति

जम्मू-कश्मीर राज्य की कोई महिला राज्य या देश से बाहर रहने वाले पुरुष से विवाह कर लेती है तो उसके पति या संतानों को राज्य की नागरिकता का अधिकार नहीं मिलता है। इसी परिवार की बेटी सारा अब्दुल्ला ने केंद्रीय मंत्री और भारत के नागरिक सचिन पायलट से विवाह किया तो सचिन पायलट एवं उनके बच्चों को जम्मू-कश्मीर में सम्पत्ति खरीदने या शिक्षा लेने का अधिकार नहीं मिल पाया है। इन बच्चों को ब्रिटिश नागरिक श्रीमती मौली के बच्चों की तरह जम्मू-कश्मीर में न तो मतदाता बनने का अधिकार है और न ही चुनाव लड़ कर मुख्यमंत्री बनने का

हेमंत कुमार बिश्नोई उपाध्यक्ष, जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र, नई दिल्ली

नरेन्द्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर की धरती पर जाकर वहां महिलाओं को सामान अधिकार न दिए जाने का मुद्दा अपने भाषण में उठाया। उनका कहना था कि राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर से बाहर रहने वाली महिला से शादी करे तो स्थानीय नागरिक के तौर पर उनके अधिकार कायम रहते हैं। इसके विपरीत उनकी बहन ने राज्य के बाहर रहने वाले पुरुष से विवाह किया तो वह जम्मू-कश्मीर राज्य के नागरिक के तौर पर मिले अधिकार खो देती हैं। मोदी ने दावा किया कि जम्मू- कश्मीर राज्य की महिलाओं के साथ भेदभाव किया जा रहा है और उन्होंने राज्य के बेटियों के प्रति सौतेला व्यवहार किए जाने को समाप्त करने की मांग उठाई। जब देश में सभी राजनीतिक दलों और अन्य स्वयंसेवी संगठन महिला सशक्तिकरण का मुद्दा जोर-शोर से उठा रहे हैं; तब यह विषय निश्चित तौर पर महत्त्वपूर्ण हो जाता है। महिलाओं के साथ भेदभाव और उनकी कमजोर स्थिति का लाभ उठाने की प्रवृत्ति को लेकर देश के हर कोने में महिला संगठन पनपते और आंदोलन करते दिखाई देते हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि जम्मू-कश्मीर राज्य में महिलाओं के साथ भेदभाव का मोदी का यह नारा देश की जनता को गुमराह करने के लिए है अथवा इसमें कोई सच्चाई भी है। यह बात देश में सभी जागरूक नागरिकों के मन में भी छाई हुई है। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने मोदी के भाषण के तत्काल बाद इसका खंडन कर दिया। ट्वीट किए अपने बयान में अब्दुल्ला ने कहा कि भाषण में प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी की या तो जानकारी कम है अथवा यह जान-बूझकर देश की जनता को गुमराह करने का प्रयास है।

शेख परिवार से जानें असमानताओं को कानून के विशेषज्ञों का मानना है कि जम्मू-कश्मीर में महिलाओं के अधिकारों के मामले में दोनों तरफ से बयानों में स्पष्टता का अभाव है। इसके कानूनी पहलुओं को समझना हो तो जम्मू-कश्मीर के उस परिवार के उदाहरण से समझा जा सकता था; जिसकी तीन पीढ़ियों ने बारी-बारी यहां मुख्यमंत्री का पद सम्भाला। इस राज्य के पहले मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला के पुत्र डॉ. फारूक अब्दुल्ला ने ब्रिटेन की महिला के साथ विवाह किया, विवाह करते ही वह जम्मू-कश्मीर राज्य की स्वाभाविक नागरिक बन गई। वह न केवल यहां के शिक्षा संस्थानों में मेडिकल या इंजीनियरिंग की शिक्षा लेने या कोई सरकारी नौकरी करने तथा राज्य में अपने नाम में सम्पत्ति खरीदने की वैध अधिकारी हो गई। इतना ही नहीं, उन्हें वोट डालने और चुनाव लड़ने का भी अधिकार प्राप्त हो जाता है। इसी तरह उनकी सभी संतानों को भी राज्य में शिक्षा प्राप्त करने या संपत्ति खरीदने और सरकारी नौकरी करने का अधिकार मिल गया। इसी तरह, इनके पुत्र उमर अब्दुल्ला ने भी जम्मू-कश्मीर राज्य से बाहर की रहने वाली महिला से विवाह किया और उनको को भी जम्मू-कश्मीर में अन्य नागरिकों की तरह सभी अधिकार प्राप्त हो गए। इनकी संतान को भी सभी अधिकार कानूनी दृष्टि से पूरे मिलते हैं। इन दो उदाहरणों से इस बात को स्पष्ट करने का प्रयास है कि जम्मू-कश्मीर का कोई भी पुरुष राज्य या देश से बाहर रहने वाली महिला से शादी करता है तो उस महिला और उनकी संतानों को राज्य में सभी नागरिक अधिकार मिल जाते हैं।
मुद्दा यह है कि इसके विपरीत, जम्मू-कश्मीर राज्य की कोई महिला राज्य या देश से बाहर रहने वाले पुरुष से विवाह कर लेती है तो उसके पति या संतानों को राज्य की नागरिकता का अधिकार नहीं मिलता है। इसी परिवार की बेटी सारा अब्दुल्ला ने केंद्रीय मंत्री और भारत के नागरिक सचिन पायलट से विवाह किया तो सचिन पायलट एवं उनके बच्चों को जम्मू-कश्मीर में सम्पत्ति खरीदने या शिक्षा लेने का अधिकार नहीं मिल पाया है। इन बच्चों को ब्रिटिश नागरिक श्रीमती मौली के बच्चों की तरह जम्मू-कश्मीर में न तो मतदाता बनने का अधिकार है और न ही चुनाव लड़ कर मुख्यमंत्री बनने का।

पुरुषों को मिले हुए हैं अधिकार एक ही परिवार के बेटे और बेटी के राज्य से बाहर के नागरिक से शादी कर लेने के कारण, उनकी संतानों के अधिकारों में इतना बड़ा अंतर स्पष्ट करता है कि जम्मू-कश्मीर में स्त्रियों एवं पुरुषों को सामान अधिकार प्राप्त नहीं है। जम्मू कश्मीर के पुरुषों को यह अधिकार मिला हुआ है कि किसी भी विदेशी महिला से विवाह करके उसे राज्य के अन्य नागरिकों के समान सभी अधिकार दिलवा दें लेकिन इसी राज्य में लाखों की संख्या में ऐसे नागरिक भी हैं; जो भारत के बंटवारे के समय पाकिस्तान से यहां चले आये थे लेकिन उन्हें आज तक राज्य कि नागरिकता के अधिकार नहीं मिले। ये नागरिक लोक सभा में अपने प्रतिनिधि चुनने के लिए तो मतदान करते हैं और चुनाव लड़ भी सकते हैं लेकिन राज्य की विधानसभा सदस्यों को चुनने का या चुनाव लड़ने का अधिकार इन्हें प्राप्त नहीं है। इनमें प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के परिवार के अनेक पूर्व पड़ोसी भी है; जो पंजाब या देश के अन्य राज्यों में जाने के स्थान पर, बंटवारे के दौरान इस राज्य में बस गए थे। डा. मनमोहन सिंह भी पंजाब के स्थान पर जम्मू- कश्मीर में चले गए होते उन्हीं लोगों में अपने को पाते जिन्हें न तो मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिला मिल सकता है और न ही सम्पत्ति खरीदने का हक़ होता।

वह तो विधान परिषद ने रोका वरना.. जहां तक सवाल मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की पार्टी और पीडीपी का महिलाओं के अधिकारों को संरक्षण देने की नीति का है। वह तो ‘जम्मू-कश्मीर स्थायी निवासी ( डिसकवालीफिकेशन) अधिनियम-2004’ को विधान सभा में पारित कराने के ढंग से पता चल जाता है। इस विधेयक को केवल छह मिनट में इन दोनों पार्टयिों में पारित कर दिया था। किस्सा यह था कि जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने सात अक्टूबर 2002 को दिए अपने निर्णय में स्पष्ट कर दिया था कि जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासी की बेटी के बाहर रहने वाले व्यक्ति से विवाह करने पर नागरिक अधिकार समाप्त नहीं किये जा सकते। मुफ्ती मोहम्मद सईद की सरकार ने उच्च न्यायालय के इस आदेश को रद्द करने के लिए मार्च 2004 में यह विधेयक सदन में पेश किया। इसमें कहा गया था कि राज्य की किसी भी लड़की के बाहर के पुरुष से विवाह करने पर उसके राज्य के नागरिकता के अधिकार समाप्त हो जायेगी। उमर अब्दुल्ला की पार्टी ने इस विधेयक का समर्थन किया और केवल छह मिनट में इसे पारित भी कर दिया गया। लेकिन विधेयक को विधान परिषद् ने पास नहीं किया और इस कारण यह कानून नहीं बन पाया। इसी स्थिति में नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के बयानों की सच्चाई आसानी से समझी जा सकती है।

दरकार : विषम संघवाद पर विवेकपूर्ण बहस की

भारत का विषम संघवाद केवल जम्मू- कश्मीर पर ही लागू नहीं होता और जम्मू- कश्मीर का मामला ही विशेष मामला नहीं है। और अनुच्छेद-370 ही केवल विषमता को परिभाषित नहीं करता। अनुच्छेद-371 पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों पर विषम संघवाद के आधार पर इसी तरह लागू होता है। विभिन्न मामलों में अनुच्छेद- 371 संसद की शक्तियों को नगालैंड तक सीमित करता है। यदि अनुच्छेद-370 में राज्य-केंद्र सम्बन्ध का प्रावधान है और उसका सम्प्रभुता और राष्ट्रवाद के मामले से कोई लेनादेना नहीं है तो राष्ट्रीय अखंडता के मुद्दे पर कोई भी बहस फालतू हो जाती है।

प्रो. रेखा चौधरी राजनीति संकाय, जम्मू विश्वविद्यालय

जम्मू में मोदी की ललकार रैली के बाद देश में अनुच्छेद-370 पर ताजा बहस शुरू हो गई है। रैली में अपने भाषण के दौरान उन्होंने इस अनुच्छेद की सार्थकता पर सवाल किया और यह दिखाया कि यह लोगों के विकास और अधिकारों में बाधा बन रहा है। हालांकि मोदी ने इसे समाप्त करने की मांग नहीं की और हमेशा की तरह केवल इस पर विवेकपूर्ण बहस की मांग की। इसके बाद से इसके समर्थकों और विरोधियों के बीच कटु संवाद शुरू हो गया है। अनुच्छेद-370 और विवेकपूर्ण बहस दो असत्य से शब्द हैं। शुरू से ही यह अनुच्छेद दोनों पक्षों में ऐसा जोश पैदा करता रहा है कि इस पर विवेकपूर्ण बहस कभी देखने को नहीं मिली। इसके समर्थकों के लिए यह विश्वास का अनुच्छेद रहा है और इसके विरोधियों के लिए इसका विरोध विश्वास का मुद्दा रहा है। दोनों पक्षों के लिए यह अनुच्छेद बहुत सारी भावनाएं पैदा करता है। यही कारण है कि इस अनुच्छेद के बारे में बहुत सारी गलत धारणाएं हैं। इनमें से कुछ पर र्चचा करना रोचक हो सकता है। स्थायी आवास प्रमाणपत्र को लेकर अनुच्छेद-370 के बारे में भ्रम है। सच्चाई यह है कि राज्य के स्थायी निवासियों को कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हैं। इन विशेषाधिकारों को राज्य के गैर निवासियों को इजाजत नहीं है। गैर निवासियों को अधिकारों से अनुच्छेद-370 की वजह से वंचित नहीं किया गया है बल्कि भारतीय संविधान में अनुच्छेद-370 को शामिल किए जाने से पहले एक कानून के शामिल किए जाने के कारण किया गया है। यह कानून वर्ष 1927 में बनाया गया था तथा उस समय इसे स्टेट सब्जेक्ट लॉ के नाम से जाना जाता था। यह राज्य से बाहर के लोगों को राज्य में संपत्ति खरीदने और रोजगार करने से रोकता था। इन दोनों पर केवल राज्य के लोगों का अधिकार था। अनुच्छेद-370 का स्टेट सब्जेक्ट लॉ या स्थायी निवासी कानून से कोई सम्बन्ध नहीं है।

सम्प्रभु ता कानून लागू है यहां अनुच्छेद-370 के बारे में इस अनुच्छेद की वजह से ही एक और गलत धारणा यह है कि भारत की सम्प्रभुता जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती। इस अनुच्छेद के समर्थकों और विरोधियों ने इस तर्क का अपने अपने लाभ के लिए इस्तेमाल किया है। इसके विरोधी कहते रहे हैं कि भारत की सम्प्रभुता इस राज्य पर अधूरी है क्योंकि इस राज्य पर भारतीय संविधान लागू नहीं होता। इस अनुच्छेद के समर्थकों का तर्क है कि इसके बावजूद राज्य भारत में शामिल है लेकिन इसका भारत के साथ विलय नहीं हुआ है और इस तरह राज्य की अपनी कु छ सम्प्रभुता है। जबकि कानूनी स्थिति बिल्कुल अलग है। सम्प्रभुता का मुद्दा तब ही तय हो गया था, जब राज्य ने भारत में शामिल होने के कागजात पर हस्ताक्षर किए थे। सच्चाई यह है कि जम्मू-कश्मीर भारत की सम्प्रभुता के तहत आता है। अन्य शाही राज्यों की तरह, जो भारत का हिस्सा बन गए थे, जम्मू-कश्मीर भी भारत का हिस्सा बन गया था। सम्प्रभुता के मामले में इस राज्य को कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। राज्य पर भारतीय सम्प्रभुता पहले दिन से ही पूरी तरह है। असल में अनुच्छेद-370 इस बात की पुष्टि करता है कि राज्य पर भारतीय सम्प्रभुता है। अनुच्छेद-370 के प्रावधानों के अनुसार केवल दो अनुच्छेद राज्य पर सीधे लागू होते हैं। एक तो स्वयं अनुच्छेद-370 और दूसरा अनुच्छेद-एक। अनुच्छेद-370 में यह परिभाषित किया गया है कि राज्य भारत गणतंत्र का एक हिस्सा है।

तो क्या हुआ अगर अनुच्छेद सम्प्रभुता के बारे में कार्य नहीं करता है। यह मुख्य रूप से राज्य और केंद्र के संबंधों के बारे में बात करता है। राजनीति शास्त्र की शब्दावली में अनुच्छेद-370 को विषम संघवाद के रूप में परिभाषित किया गया है। इसका मतलब यह है कि भारतीय संघ में स्थिति के मामले में जम्मू-कश्मीर अन्य राज्यों के बराबर है लेकिन अन्य राज्यों की तुलना में इसका केंद्र के साथ अलग सम्बन्ध है। इस अनुच्छेद के कारण भारतीय संविधान और संसद के कानून राज्य पर उसकी सहमति से ही लागू हो सकते हैं। जिन मामलों में राज्य पर भारत का संविधान लागू नहीं होता, उन मामलों में राज्य का अपना संविधान होगा। तीन सूचियों में बताई गई शक्तियों का विभाजन राज्य पर लागू नहीं होता है। बाकी शक्तियों में उसे विशेषाधिकार प्राप्त है। ये सभी प्रावधान विषय संघवाद की विशेषताओं के बारे में बताते हैं।

पूर्वोत्तर में भी है यह प्रावधान भारत का विषम संघवाद केवल जम्मू-कश्मीर पर ही लागू नहीं होता और जम्मू-कश्मीर का मामला ही विशेष मामला नहीं है। और अनुच्छेद-370 ही केवल विषमता को परिभाषित नहीं करता। अनुच्छेद-371 पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों पर विषम संघवाद के आधार पर इसी तरह लागू होता है। विभिन्न मामलों में अनुच्छेद-371 संसद की शक्तियों को नगालैंड पर सीमित करता है। यदि अनुच्छेद-370 में राज्य-केंद्र सम्बन्ध का प्रावधान है और उसका सम्प्रभुता और राष्ट्रवाद के मामले से कोई लेना-देना नहीं है तो राष्ट्रीय अखंडता के मुद्दे पर कोई भी बहस फालतू हो जाती है। रोचक बात यह है कि मोदी ने राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य में अनुच्छेद- 370 का मामला नहीं उठाया। इसके विपरीत उन्होंने अधिकारों की भाषा का इस्तेमाल किया। यह राज्य के नागरिकों और उनके अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में है और उन्होंने अनुच्छेद- 370 की समीक्षा पेश की। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद-370 की प्रकृति के कारण संसद द्वारा पास किए गए कानूनों का लाभ राज्य के लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में मोदी ने जम्मू की रैली में निश्चित रूप से भाजपा के पारम्परिक रुख से दूरी बनाकर रखी। भारतीय जनसंघ के अस्तित्व के शुरुआती दिनों से ही राष्ट्रवादी परिप्रेक्ष्य में भाजपा अनुच्छेद-370 का विरोध करती रही है। इसके पक्ष में इसका यह तर्क रहा है कि इस अनुच्छेद के कारण ही राज्य पूरी तरह भारत के साथ नहीं जुड़ पाया है। मोदी ने जिस संदर्भ में यह बात कही है, इसका परिणाम आने वाले दिनों में क्या दिखाई देगा, यह कहना मुश्किल है। हालांकि इसका भावनात्मक परिणाम दिखाई दे रहा है।

अनुच्छेद अड़ंगा नहीं विकास में

कश्मीर एक बार फिर र्चचाओं में है। इस बार र्चचा के बिंदु का केंद्र यहां की खूबसूरत वादियां, बुनियादी विकास या फिर आतंकवाद नहीं बल्कि अनुच्छेद 370 है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने इस अनुच्छेद पर पुनर्विचार की मांग करके इस मुद्दे को फिर से गरमा दिया है। भाजपा इसको प्रचारित कर रही है कि अनुच्छेद 370 लागू होने के कारण जम्मू-कश्मीर में औद्योगिक गतिविधियां नहीं पनप पा रही हैं। इसलिए यह विकास के मामले में अपने पड़ोसी राज्यों के साथ कदमताल नहीं कर पा रहा है। असली तस्वीर पेश करने के लिए हस्तक्षेप की तरफ से देवेन्द्र शर्मा ने उद्योग मंडल पीएचडी चैम्बर आफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष सु मन ज्योति खेतान से बातचीत की। श्री खेतान ने जम्मू-कश्मीर के औद्योगिक परिदृश्य पर एक रिपोर्ट भी तैयार की है। यहां पेश है बातचीत के संक्षिप्त अंश

अनुच्छेद 370 को लेकर जम्मू-कश्मीर फिर से र्चचाओं में है। इस अनुच्छेद के कारण राज्य के औद्योगिक विकास पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? किसी भी राज्य में औद्योगिक विकास के लिए कानून और व्यवस्था का मजबूत होना बहुत जरूरी है। यदि उद्यमियों को अनुकूल माहौल मिलेगा तो वह निश्चित तौर पर निवेश करेंगे। पर जम्मू-कश्मीर को लेकर उछाला गया अनुच्छेद 370 मुद्दा सिर्फ राजनीतिक है। इसका औद्योगिक विकास से कोई लेना-देना नहीं है। यदि ऐसा होता तो यहां कोई भी उद्योग नहीं लग पाता। फिलहाल यहां कई उद्योग अच्छा-खासा कारोबार कर रहे हैं। इसके अलावा, कई बड़ी सरकारी और निजी क्षेत्र की परियोजनाओं पर तेजी से काम चल रहा है। इसलिए तथ्यों के आधार पर मेरा मानना है कि अनुच्छेद 370 का मुद्दा सिर्फ राजनीतिक है। क्या इस अनुच्छेद के कारण यहां उद्योग लगाने में कोई बाधा नहीं है? इसमें कोई दोराय नहीं कि यहां कोई भी उद्योगपति सीधे जमीन खरीदकर अपनी यूनिट नहीं लगा सकता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वह उद्योग लगा ही नहीं सकता। अन्य राज्यों की तुलना में यहां उद्योग लगाने की प्रक्रिया थोड़ी अलग है। यदि आप यहां कोई संयंत्र स्थापित करना चाहते हैं तो सबसे पहले सरकार से मंजूरी लेनी होगी। इसके बाद सरकार लीज पर जमीन देगी जिसकी अवधि 90 साल तक की हो सकती है। उद्योग लगाने की प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए किसी स्थानीय नागरिक को साझीदार बनाया जा सकता है। जम्मू-कश्मीर में फिलहाल उद्योग-धंधों की क्या स्थिति है? राज्य की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि यहां पड़ोसी राज्य पंजाब की तरह उद्योग धंधे विकसित नहीं हो सकते। पहाड़ी क्षेत्र और बड़े भू-भाग के बर्फ से ढंके रहने के कारण यहां सभी तरह के उद्योग-धंधे विकसित नहीं किए जा सकते। टूरिज्म यहां का सबसे आर्कषक और विशाल सेक्टर है। फिलहाल राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इसका अहम योगदान है। इस क्षेत्र में विस्तार की व्यापक सम्भावनाएं हैं। इसके लिए राज्य सरकार को पर्यटकों के मन से सुरक्षा सम्बन्धी भय को निकालना होगा। यदि सरकार इस दिशा में कामयाब हो जाती है तो यह पहाड़ी राज्य तेजी के साथ विकास कर सकता है। मौजूदा स्थिति में राज्य की अर्थव्यवस्था में किनकिन क्षेत्रों का विशेष योगदान है? फिलहाल यहां की अर्थव्यवस्था पारंपरिक व्यवसाय खेती, पशुपालन, हैंडलूम, हस्तशिल्प और बागवानी पर केंद्रित है। यहां की 65 फीसद से ज्यादा आबादी खेतीबाड़ी पर ही निर्भर है। देश में सेब की कुल पैदावार में राज्य का करीब 77 फीसद का योगदान है। यहां अखरोट का भी बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है। इन दोनों जिंसों के निर्यात से राज्य की अर्थव्यवस्था को अच्छी मजबूती मिलती है। इसी के दृष्टिगत जम्मू-कश्मीर को सेब और अखरोट के लिए ‘एग्री एक्सपोर्ट जोन’ घोषित किया गया है। राज्य की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए यहां और किस तरह उद्योग-धंधे सफल हो सकते हैं? राज्य में निवेश को बढ़ावा देने के लिए वर्ष 2004 में नई उद्योग नीति लागू की गई थी। इसका नीति का उद्देश्य राज्य में उद्योगों के अनुकल ढांचा विकसित करने और रोजगार सृजन को बढ़ावा देना था। इसके तहत राज्य में नए उद्योगों के लिए प्रोत्साहन भी दिया जा रहा है। राज्य की यह योजना किसी हद तक सफल भी होती दिख रही है। राज्य में नदियों का जाल बिछा हुआ है। जाहिर तौर पर यहां हाइड्रो पावर के क्षेत्र में व्यापक सम्भावनाएं हैं। इस क्षेत्र में यहां कई बड़ी परियोजनाओं पर काम चल रहा है। यदि सूबे में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का सुनियोजित तरीके से दोहन जाए तो जम्मू-कश्मीर जल्द ही एक समृद्ध राज्य बन सकता है। आपकी नजर में राज्य में औद्योगिक विकास के लिए किस सरकार ने बेहतर काम किया? पीएचडी चैम्बर का उद्देश्य देश में औद्योगिक गतिविधियों को बढ़ावा देना है। ऐसे में हम किसी भी राजनीतिक पचड़े में नहीं पड़ना चाहते। राज्य के विकास का दायित्व राज्य सरकार और केंद्रीय एजेंसियों का है। फिलहाल आरोप-प्रत्यारोपों के बजाय यहां मजबूत आधारभूत ढांचा विकसित करने की जरूरत जिससे यहां ज्यादा से ज्यादा निवेश आकर्षित हो सके। यदि यहां के लोगों को भरपूर रोजगार मिलेंगे तो राज्य की ज्यादातर समस्याएं स्वत: ही समाप्त हो जाएंगी।

370 कोई गीता, कुरान तो नहीं कि बदला न जाए

प्रो. हरिओम राजनीतिक विमर्शकार
यह अनुच्छेद हर मामले में जम्मू-कश्मीर और संघ के अन्य राज्यों के बीच अनुचित और अपमानजनक भेद बनाता है, वह केवल लोगों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन को कश्मीर में सत्तारूढ़ कुलीन असाधारण विधायी और कार्यकारी शक्तियों में निहित करता है और यह सिवाय नफरत की दीवार के और कुछ भी नहीं है। इसने कश्मीर में सभी वर्ग के नेताओं और साम्प्रदायिक कांग्रेसियों को प्रतिक्रिया के लिए उकसाया जिससे मौलिक तौर पर एक अप्रिय और बुरे कानून की वकालत की चाहत बढ़ी। इसे तत्काल खत्म किये जाने की जरूरत है या फिर इस अनुच्छेद को दुरु स्त करने की जरूरत है क्योंकि कश्मीरी नेतृत्व महिलाओं, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों और पश्चिमी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों को सम्मानजनक जीवन व्यतीत करने के उनके मौलिक अधिकार से वंचित करने के रूप में इसका दुरु पयोग किया है

जम्मू की ‘ललकार रैली’ में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के उत्तेजक सुझाव ‘यह पता लगाने के लिए इस पर बहस होनी ही चाहिए कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर और इसके लोगों के लिए फायदेमंद रहा है या इसने उन्हें दारु ण कष्ट दिया है। लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को अवरु द्ध किया है, जिसने समूचे कश्मीर के नेताओं को औंधा दिया है; ने एक सार्थक बहस का आगाज किया है। मोदी ने कहा कि अनुच्छेद 370 से जम्मू-कश्मीर से सिर्फ 50 परिवारों को फायदा हुआ है और शेष लोगों के लिए यह ‘बंधन का चार्टर’ साबित हुआ है। यही वजह कई कि भारतीय जनता पार्टी साठ से अधिक सालों से इस प्रावधान को खत्म किये जाने की मांग करती रही है। यदि यह अनुयायियों द्वारा साबित हो जाता है कि अनुच्छेद- 370 राज्य के लोगों के लिए लाभकारी रहा है और इसने राज्य सरकार को देश के सामरिक दृष्टि से इस महत्त्वपूर्ण राज्य में राज-व्यवस्था लोकतांत्रिक बनाने में मदद दी है तो इसे बनाये रहा जा सकता है। दरअसल, यह अनुच्छेद- 370 की उपयोगिता पर बहस किये जाने का प्रासंगिक व अहम आग्रह है जिसने महत्त्वपूर्ण दौर में बहस का आगाज किया है। यह होनी ही चाहिए ताकि संविधान के इस सर्वाधिक विवादास्पद और विशिष्ट प्रावधान से जम्मू- कश्मीर को हुए नफा-नुकसान का आकलन किया जा सके। प्रतिगामी राजनीति के शून्य शब्दकोष मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और नेशनल कान्फ्रेंस (नेकां) के कार्यवाहक अध्यक्ष और उनके पिता केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला, जम्मू-कश्मीर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सैफुद्दीन सोज, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती, भारत की मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के राज्य सचिव मोहम्मद यूसुफ तारीगामी और उनके जैसे ही अन्य लोगों ने मोदी के सुझाव को रौंदने के लिए हाथ मिलाया है। वस्तुत: वे राज्य की असल आकांक्षाओं पर वज्र प्रहार करते रहे हैं और उन्होंने सदा से इसे नजरअंदाज किया है। अलबत्ता, उन्हें कामयाबी मिलने के आसार नहीं हैं। एक राज्य, एक व्यक्ति और एक राष्ट्र के सिद्धांत की वकालत करनेवाली बीजेपी और मोदी के खिलाफ उनके तेज़ होते हुए हमले, हर बीतते हुए घंटे के साथ तीखे होते जा रहे हैं। बजाय तथ्यों के आधार पर वैध और तर्कसंगत तर्क करने की जगह वे तीन बार मुख्यमंत्री चुने गये शख्स के खिलाफ असंसदीय भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। मोदी पर उनके हमले केवल उनकी अपनी निराशा और हताशा का संकेत है, और साथ ही अनुच्छेद-370 पर बहस में शामिल होने के लिए उनका इनकार भी। यह इस बात को दशर्ता है कि अनुच्छेद-370 पर अपने रु ख का बचाव करने के लिए उनके प्रतिगामी राजनीतिक शब्दकोश में कुछ भी नहीं है। छलपूर्ण तर्क सभी का एक सूत्रीय एजेंडा राज्य को राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग रखने का है, जिससे कि घाटी का सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग और उनके एजेंट राजनीति और अर्थव्यवस्था पर उनका बोलबाला बनाये रख सकें और कश्मीर को भारत से तोड़ने के उनकी सदियों पुरानी घोषणा पत्र को पूरा कर एक स्थानीय कुलीन तंत्र को स्थापित कर सकें। यह कहना उचित होगा कि उनका यह सारा काम भारत और सभी भारतीयों के उनके दृष्टिकोण को दर्शाता है, जो कि घृणा और अवमानना का है और वे छल, भावनात्मक ब्लैकमेल और इनमे भी सबसे बुरी साम्प्रदायिकता के बल पर राजनीति में पनपे और जन्मे हैं।और तर्क है कि वे कांग्रेस, जदयू, सपा और वाम दलों, विशेष रूप से भाकपा और माकपा जैसे अल्ट्रा सांप्रदायिक पार्टयिां जो भारत को लगभग दो दर्जन देशों का समूह मानती हैं और जिसमें कि हर समूह को होने का अधिकार है, वे अपने रु ख का बचाव करने के हताश प्रयास में आगे बढ़ रही हैं। यह कह रही हैं कि अनुच्छेद-370 ‘जम्मू- कश्मीर और देश के बाकी हिस्सों के बीच एक पुल की तरह है। इसके विध्वंस से राज्य का भारत से अपने आप ही अलगाव हो जाएगा। यह एक फर्जी तर्क है। अनुच्छेद-370 का राज्य के भारत में विलय के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है। यह एक अस्थायी प्रावधान है। इसे भारतीय संसद द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 368 को लागू करके संशोधित या निरस्त भी किया जा सकता है। याद रखें, यह लेख भारत के संविधान के भाग 21 के अंतर्गत ‘अस्थायी संक्रमणकालीन और विशेष प्रावधान शीर्षक’ में आता है। अत: संसद इसे अनुच्छेद-379 से 391 की तरह निराकृत कर इसे निरस्त करने में पूरी तरह सक्षम है क्योंकि यह भी भारत कि कानूनी किताब के भाग 21 का ही एक हिस्सा है। यहां तक कि भारत के राष्ट्रपति भी अनुच्छेद 370 के अंतर्गत उसको दी गई शक्तियों के तहत कुछ ही समय में इस अनुच्छेद को स्क्रैप कर सकते हैं। इस अनुच्छेद के तहत, संघ के अध्यक्ष को असीमित कार्यकारी शक्तियां प्राप्त है। आवश्यकता है राजनीतिक इच्छा शक्ति की; जिसकी कमी है। खुद शेख ने इसे निर्थक होना बताया था तथ्य यह है कि इस मामले में मोदी को गलत साबित करने के लिए जो तर्क आगे बढ़ाये गए हैं; वे हास्यापद और बेकार हैं। यहां तक कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने देश के खिलाफ 1949 में कश्मीर को अलग करने की साजिश की थी और ‘स्विट्जरलैंड की तरह आजाद कश्मीर’ के कथाकार शेख मुहम्मद अब्दुल्ला जो कि उमर अब्दुल्ला के दादा और फारूक अब्दुल्ला के पिता थे, ने 1963 में संसद को यह बताया था कि अनुच्छेद-370 ने अपनी चमक खो दी है और आने वाले समय में यह निर्थक हो जाएगा। उन्होंने कहा था-‘अनुच्छेद-370 घिस चुका है और क्रमिक क्षरण की प्रक्रिया चल रही है, और हमें उसे ऐसे ही चलने देना चाहिए। अम्बेडकर ने कहाथा विश्वासघाती प्रावधान अनुच्छेद-370 नेहरू और शेख के दिमाग की उपज था और इसे 17 अक्टूबर 1949 को भारतीय संविधान द्वारा मौलाना हसरत मोहानी की स्पष्ट चेतावनी को अनदेखा कर कुछ ही समय में अपनाया गया था. मोहानी ने कहा था कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा बाद में उसे ‘स्वतंत्रता ग्रहण करने के लिए’ प्रेरित करेगा। इससे पहले 27 मई 1949 को प्रो केटी शाह, जो कि बिहार से संविधान सभा के सदस्य थे, ने अपने सहयोगियों से शेख अब्दुल्ला की संदिग्ध साख पर विचार करने के आग्रह के साथ एक आदमी (अब्दुल्ला) की चाहतों के लिए समर्पण न करने के लिए कहा था। हालांकि जवाहरलाल नेहरू ने शाह के बयां को एकमुश्त रूप से अस्वीकार कर दिया था और कहा था कि उन्हें एक कश्मीरी के रूप में कश्मीर के बारे में अधिक पता है और शेख अब्दुल्ला की उनके विचार के लिए सराहना की थी। संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. बी.आर अम्बेडकर ने 1949 में ही शेख अब्दुल्ला से कहा था : आप भारत और भारतीयों से कश्मीर की रक्षा कराना चाहते हैं। आप कश्मीर और कश्मीरियों को पूरे भारत में सभी अधिकारों का प्रयोग कराना चाहते हैं लेकिन आप भारत और भारतीयों को जम्मू-कश्मीर में उन्ही अधिकारों का प्रयोग नहीं करने देना चाहते हैं। मैं भारत का कानून मंत्री हूं और मैं राष्ट्रीय हित के विश्वासघात का एक अधिनियम पारित नहीं कर सकता।’ नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को अपनी मांग पर विशेष ध्यान देंने के लिए डॉ. अम्बेडकर को समझाने के लिए कहा था। दरअसल, अनुच्छेद-370, हर मामले में जम्मू-कश्मीर और संघ के अन्य राज्यों के बीच अनुचित और अपमानजनक भेद बनाता है, वह केवल लोगों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन को कश्मीर में सत्तारूढ़ कुलीन असाधारण विधायी और कार्यकारी शक्तियों में निहित करता है और यह सिवाय नफरत की दीवार के और कुछ भी नहीं है। इसने कश्मीर में सभी वर्ग के नेताओं और साम्प्रदायिक कांग्रेसियों को प्रतिक्रिया के लिए उकसाया जिससे मौलिक तौर पर एक अप्रिय और बुरे कानून की वकालत की चाहत बढ़ी। इसे तत्काल खत्म किये जाने की जरूरत है या फिर इस अनुच्छेद को दुरु स्त करने की जरूरत है क्योंकि कश्मीरी नेतृत्व महिलाओं, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों और पश्चिमी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों को सम्मानजनक जीवन व्यतीत करने के उनके मौलिक अधिकार से वंचित करने के रूप में इसका दुरु पयोग किया है। वे राज्य की आबादी का 85 फीसद से अधिक हैं और उनका नेतृत्त्व मोदी के इस सुझाव को अयोग्य समर्थन दे रहा है।